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Sunday, 3 February 2019

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Budget 2019: पीयूष गोयल के बजट में है 'गेम ऑफ थ्रोंस' जैसी पटकथा और 'हाउस ऑफ कार्ड्स' वाला रोमांच

यह समझने के लिए हमें किसी रॉकेट साइंटिस्ट (Rocket Scientist) की मदद की जरूरत नहीं है कि, वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने साल 2019-20 के लिए जो अंतरिम बजट पेश किया, वो आगामी लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर बनाया गया था. न ही यह समझना क्वांटम फिजिक्स (Quantum Physics) जैसा पेचीदा है कि, यह बजट अपने मूल लक्ष्य यानी वित्तीय (राजकोषीय) घाटे के मोर्चे पर चूक गया है. लिहाजा अपने लक्ष्य से भटकने के बाद यह बजट अब फिस्कल रिस्पांसिबिलिटी एंड बजटरी मैनेजमेंट (FRBM) एक्ट की योजनाओं के अंतर्गत आ गया है. बजट पेश होने के बाद हमारे सामने जो सवाल आकर खड़े हो गए हैं, उनमें से एक अहम सवाल यह है कि, क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार चुनावी लोकलुभावनवाद (Electoral Populism) और वित्तीय बुद्धिमानी से संचालित विकास के अपने दोनों मकसदों को पाने में कामयाब हो पाई है या नहीं. सवाल यह भी है कि चुनावी बजट बनाने के चक्कर में कहीं सरकार अपने दोनों मकसदों के बीच फंस तो नहीं गई है. मोदी सरकार के अंतरिम बजट को गहराई से समझने के लिए हमें पहले भारत की समाजिक व्यवस्था पर गौर करना होगा. जाति व्यवस्था के प्रति गैर-मामूली और ऐतिहासिक रुझान की वजह से हम भारतीय मुख्यत: दो अलग-अलग समुदायों में बंट हुए हैं. अपनी सहूलियत के लिए चलिए हम उन दोनों समुदायों में से एक को 'वोट जंकी' और दूसरे को 'फिस्कल निंजा' का नाम दिए देते हैं. वहीं अगर इस साल के बजट को टीवी धारावाहिक (Soap Operaरा) या डिजिटल युग के टीवी संस्करण यानी वेब सीरीज की संज्ञा दे दी जाए, तो कहा जा सकता है कि, मोदी सरकार ने तोहफों और सौगात की बौछार कर के मतदाताओं को लुभाने की पुरजोर कोशिश की है. वेब सीरीज सरीखे बजट में 'वोट जंकीज' ने 'फिस्कल निंजा' को हरा दिया लिहाजा कहना गलत नहीं होगा कि, वेब सीरीज सरीखे बजट की नवीनतम कड़ी में 'वोट जंकीज' ने 'फिस्कल निंजा' को हरा दिया है. दरअसल बजट को लेकर यह दोनों समुदाय अलग-अलग नजरिया रखते हैं. पहला समुदाय जनता के वोट हासिल करने के लिए पैसे खर्च करना चाहता है. जबकि दूसरा समुदाय निवेश के मकसद से पैसे बचाना चाहता है, ताकि अनिश्चित भविष्य को सुरक्षित बनाया जा सके. इसके अलावा दूसरा समुदाय निवेश के जरिए उत्पादकता बढ़ाने और नई नौकरियां पैदा करने पर भी जोर देता है. इसमें कोई दो राय नहीं कि रोजगार और नई नौकरियों का सृजन होते रहना बहुत जरूरी है. वरना बेरोजगारी देश के लिए गंभीर समस्या बन जाती है. ऐसा ही कुछ मौजूदा वक्त में नजर आ रहा है. फिलहाल देश में बेरोजगारी की दर अपने उच्चतम बिंदु पर दिखाई दे रही है. [caption id="attachment_188293" align="alignnone" width="1002"] लोकसभा में अंतरिम बजट भाषण पढ़ते हुए वित्त मंत्री पीयूष गोयल[/caption] सवाल यह उठते हैं कि, क्या बतौर एक पेशेवर और चतुर चार्टर्ड एकाउंटेंट उत्कृष्ट और स्पष्ट बैलेंस शीट बनाने में माहिर वित्त मंत्री पीयूष गोयल अपने बजट के जरिए मतदाताओं को लुभाने और प्रभावित करने में कामयाब हो पाए हैं? देश में भूमिहीन श्रमिकों (मजदूरों) की दैनिक मजदूरी सामान्य: 400 रुपए है. ऐसे में किसान सम्मान निधि योजना के तहत छोटे किसानों यानी 2 हेक्टेयर तक खेती योग्य जमीन रखने वाले किसानों को प्रति महीना 500 रुपए की मदद का एलान कर के गोयल ने क्या हासिल करना चाहा है. वहीं हर महीने 55 रुपए चुकाने पर असंगठित क्षेत्रों/उद्योग के श्रमिकों को 60 साल की उम्र होने पर हर महीने 3 हजार रुपए के भुगतान वाली प्रधानमंत्री श्रम-योगी मानधन पेंशन योजना क्या वाकई कामयाब हो पाएगी? दूरगामी सोच से कोसों दूर रहने वाले और भविष्य की ज्यादा चिंता न करने वाले देश के युवा श्रमिक क्या किसी पेंशन योजना में अपनी गंभीर रुचि दिखाएंगे? ऐसे और भी कई सवाल हैं जिनके जवाब अभी भविष्य के गर्भ में हैं. वैसे वित्त मंत्री ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना और रक्षा बजट में देश की बढ़ती जनसंख्या और महंगाई में इजाफे का भी ज्यादा ख्याल नहीं किया. वोट जंकी वाली पटकथा अच्छी दिखाई देती है फिर भी, वित्त मंत्री पीयूष गोयल के नजरिए से देखें तो उनकी वोट जंकी वाली पटकथा (स्क्रिप्ट) अच्छी दिखाई देती है: 125 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में 12 करोड़ छोटे किसानों को स्वरोजगार के लिए मुद्रा अकाउंट में शामिल किया गया है, असंगठित क्षेत्र के 10 करोड़ श्रमिकों को पेंशन का पात्र बनाया गया है. उज्जवला योजना के तहत 6 करोड़ लोग रसोई गैस के लाभार्थी बने हैं. निम्न मध्यवर्ग में आने वाले 3 करोड़ लोगों को इनकम टैक्स में राहत मिली है. मछुआरों, आदिवासियों और अनुसूचित जाति के लोगों को कई सौगात मिली हैं. लिहाजा वित्त मंत्री समेत उनकी पार्टी के सभी नेताओं को बजट से लाभ पाने वाले करोड़ों लोग आगामी लोकसभा चुनाव में बीजेपी को वोट देने के लिए मतदान केंद्रों पर उमड़ते नजर आ रहे हैं. लेकिन बीजेपी का यह सपना तब हकीकत में बदलेगा जब बजट के कल्पित लाभार्थी एनडीए सरकार की योजनाओं को यथार्थ के धरातल पर परखकर उन्हें अपने लिए फायदेमंद पाएंगे. उधर राहुल गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस ने बड़े पैमाने पर किसानों की कर्ज माफी और पर्याप्त न्यूनतम आय गारंटी जैसे लोकलुभावन वादे कर के बीजेपी के सामने कड़ी चुनौती पहले ही से पेश कर रखी है. चुनावी वादों में कांग्रेस से कड़ी चुनौती मिलने की वजह से मोदी सरकार ने अपने अंतरिम बजट में वोट जंकीज के साथ-साथ फिस्कल निंजा समुदाय को भी साधने की भरपूर कोशिश की है. भारतीय समाज के फिस्कल निंजा समुदाय और टीवी धारावाहिकों में दिखाई जाने वाली परंपरागत सास (Mother-In-Law) में काफी समानताएं हैं. परंपरागत सासों की तरह ही फिस्कल निंजा समुदाय भी जरा सी अनुशासनहीनता पर भड़क जाता है. [caption id="attachment_183660" align="alignnone" width="885"] नरेंद्र मोदी[/caption] चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटा कुल जीडीपी का 3.4 फीसदी रहने का अनुमान है. हालांकि राजकोषीय घाटे का लक्ष्य 3.3 फीसदी रखा गया था. ऐसे में साल 2020 के बाद राजकोषीय घाटे को कम कर के 3 फीसदी तक लाने का एफआरबीएम का लक्ष्य दुरूह और मायावी नजर आता है. वैसे नॉर्थ ब्लॉक स्थित वित्त मंत्रालय के अधिकारियों को उम्मीद है कि संशोधित जीडीपी वृद्धि दर राजकोषीय घाटे को पटरी पर ले आएगी और वो 3.1 फीसदी के लक्ष्य तक पहुंच जाएगा. लेकिन क्या वाकई ऐसा हो सकेगा? देर-सवेर बात बन जाएगी और बाजार में लाभकारी परिणाम नजर आएंगे आगामी वित्त वर्ष (2019-20) में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का विनिवेश लक्ष्य 90,000 करोड़ रुपए का है. जो कि चालू वित्त वर्ष के 10,000 करोड़ रुपए के मुकाबले 12.5 फीसदी ज्यादा है. हालांकि वित्त मंत्री गोयल को विश्वास है कि, चालू वित्त वर्ष में देर-सवेर बात बन जाएगी और बाजार में लाभकारी परिणाम नजर आएंगे. अंतरिम बजट देखकर ऐसा लगता है कि, निकट भविष्य में बाजार में कोई अनिश्चितता या राजनीतिक अस्थिरता के हालात पैदा नहीं होंगे. लेकिन दूसरी तरफ ताजा ओपिनियन पोल (जनमत सर्वेक्षणों) से पता चलता है कि, आगामी लोकसभा चुनावों में एनडीए गठबंधन बहुमत का आंकड़ा पाने में कामयाब नहीं हो रहा है. वहीं इस बात की भी कोई गारंटी नहीं ले सकता है कि, बाजार में ब्रेक्सिट (Brexit) जैसी कोई अन्य उथल-पुथल नहीं होगी. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) का सरप्लस हाल ही में खासे विवाद और चर्चा का विषय रहा. साल 2019-20 में यह सरप्लस 74,000 करोड़ रुपए से ज्यादा रहने का अनुमान है. जो कि वर्तमान वित्तीय वर्ष के स्तर से 20,000 करोड़ रुपए ज्यादा है. क्या यह आंकड़ा यथार्थवादी है? हाल ही में सिर्फ नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) ने साल 2016-17 में राजकोषीय लेखांकन (Fiscal Accounting) में बाजीगरी के खिलाफ आवाज उठाई थी. वहीं हमेशा सतर्क रहने वाले फिस्कल निंजा इस मामले में अक्सर अपने सुर ऊंचे करते आए हैं. वैसे भी यह वो समुदाय है, जिसे निकट भविष्य में कोई भी वित्त मंत्री खुश नहीं कर सकता है. सतर्क फिस्कल निंजा की निगाहें राज्य सरकारों के राजकोषीय घाटे तक पर होती है. ऐसे में अगर मुद्रास्फीति (Inflation) की दर कम हो जाए तो क्या होगा? जाहिर है कि तब फिस्कल निंजा समुदाय को भड़कने से रोकना पड़ेगा. लेकिन उससे बाजार का मूड खराब हो सकता है. ऐसे में विदेशी संस्थागत निवेशकों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण हो जाती है. भारत में राजनीति और अर्थशास्त्र एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं. लेकिन फिर भी वोट जंकी और फिस्कल निंजा समुदाय एक-दूसरे से बात करने के बजाए एक-दूसरे पर चर्चा करना पसंद करते हैं. कृपया ध्यान दें कि, नौकरी और रोजगार जैसे शब्दों को एक खास बिंदु से परे नापना अब विधि सम्मत नहीं है. ऐसा इसलिए क्योंकि रोजगार और श्रम के आंकड़े अब अच्छे दिन के विभाग में मिलाए जा चुके हैं. नौकरियों के मोर्चे पर हम किसी स्वीकार्य स्कोरकार्ड के साथ कोई खेल नहीं खेल रहे हैं. रूढ़िवादी अनुमानों के मुताबिक भारत में हर साल कार्यबल (Work Force) में शामिल होने वाले लोगों की संख्या करीब 4.75 करोड़ है. कोई वोट का खेल मान रहा है, कोई राजकोषीय मैट्रिक्स करार दे रहा  मोदी सरकार के अंतरिम बजट को कोई वोट का खेल मान रहा है, तो कोई उसे राजकोषीय मैट्रिक्स करार दे रहा है. लेकिन क्या यह सब वेब सीरीज 'Game Of Thrones' की पटकथा जैसा नजर नहीं आ रहा है? या फिर 'House Of Cards' की तरह, जो कि वादों, उम्मीदों और फॉर्मूला वन रेस की बुनियाद पर बना है. क्या इसमें कोई फिसलन वाली जगह या कोई गड्ढा नहीं है? इसका फैसला तो तब होगा जब आगामी चुनाव में करोड़ों की संख्या में लोग इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों पर अपनी उंगलियां चलाएंगे और अपने मन की बात को वोट की शक्ल देंगे. उम्मीद है कि उस वक्त इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (EVMs) में किसी तरह की गड़बड़ी की शिकायतें सामने नहीं आएंगी. अब हमारे लिए बेहतर होगा कि, मोदी सरकार के अंतरिम बजट और उसके राजनीतिक पहलुओं को समझने के लिए हम दुनिया की लोकप्रिय वेब सीरीजों के नामों के इस्तेमाल को विराम दें. उसके बजाय अब हमें अपनी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के डॉयलॉग्स पर आ जाना चाहिए. क्योंकि अंतरिम बजट भले ही पेश हो चुका हो, लेकिन अभी तक चुनावी घोषणापत्र सामने नहीं आए हैं. और न ही अबतक बड़े-बड़े वादों से भरी सियासी भाषणबाजी शुरू हुई है. ऐसे में कहना गलत नहीं होगा कि, 'पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त.' (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और समीक्षक हैं)

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