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Thursday 13 April 2017

तीन तलाक़ ख़त्म करने के लिए 18 महीने क्यों चाहिए: बीएमएमए

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के एक सदस्य ने 18 महीने तीन तलाक़ की प्रथा ख़त्म करने की बात कही है. बीएमएमए ने पूछा अभी क्यों नहीं ख़त्म किया जा सकता तीन तलाक़?

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(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)
भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) ने आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर तीन तलाक़ ख़त्म करने को लेकर दिए गए बयान का बुधवार को स्वागत किया है. साथ ही सवाल उठाया है कि तीन तलाक़ ख़त्म करने के लिए 18 महीने क्यों चाहिए? इसके ख़िलाफ़ उलेमा लोग अभी ऐलान क्यों नहीं करते?
बीएमएमए की सह-संस्थापक नूरजहां सफ़िया नियाज़ ने समाचार एजेंसी भाषा से बातचीत में कहा, पर्सनल लॉ बोर्ड के कुछ सदस्यों के बयान का हम स्वागत करते हैं, लेकिन सवाल है कि तीन तलाक़ ख़त्म करने के लिए इनको 18 महीने का समय क्यों चाहिए? इसे अभी ख़त्म क्यों नहीं किया जा सकता? हमारी मांग है कि उलेमा लोग आज ही ऐलान कर दें कि तीन तलाक़ अब नहीं माना जाएगा.
बीएमएमए तीन तलाक़, बहुविवाह और पर्सनल लॉ से जुड़े कुछ दूसरे मुद्दों को लेकर पिछले कई वर्षों से अभियान चला रहा है. तीन तलाक़ के ख़िलाफ़ संगठन ने देशभर में लाखों मुस्लिम महिलाओं के हस्ताक्षर लिए और विधि आयोग को पर्सनल लॉ का मसौदा भी सौंपा.
सफ़िया नियाज़ ने पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य के हालिया बयान को मुस्लिम महिलाओं के दबाव का असर क़रार दिया. उन्होंने कहा, मुस्लिम महिलाएं जाग चुकी हैं, वे अपना हक मांग रही है. उनके दबाव का असर है कि अब ये लोग तीन तलाक़ को ख़त्म करने की बात कर रहे हैं.
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के उपाध्यक्ष मौलाना कल्बे सादिक़ ने बीते सोमवार को कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ख़ुद ही अगले एक-डेढ़ साल में एक-साथ तीन बार तलाक़ बोलने की प्रथा को ख़त्म कर देगा और सरकार को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए.
उन्होंने सोमवार रात लखनऊ में हज़रत अली के जन्मदिवस पर आयोजित मुशायरे से इतर जिला दीवानी बार एसोसिएशन के अध्यक्ष के आवास पर संवाददाताओंं से बातचीत में कहा कि एक-साथ तीन बार तलाक़ बोलने वाली प्रथा महिलाओं के पक्ष में गलत है लेकिन यह समुदाय का निजी मसला है और वे ख़ुद एक-डेढ़ साल के भीतर इसे सुलझा लेंगे. उन्होंने कहा कि सरकार को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए.
उधर, सफिया नियाज़ ने कहा, यह लड़ाई यहीं नहीं रुकने वाली है. हम पूरे पर्सनल लॉ में बदलाव चाहते हैं. तीन तलाक़ के साथ बहुविवाह और निक़ाह हलाला पर भी पूरी तरह रोक लगनी चाहिए.
बीएमएम ने यह भी कहा कि पर्सनल लॉ में बदलाव और तीन तलाक़ के मामले को उच्चतम न्यायालय और सरकार के स्तर पर हल किया जा सकता है.
उन्होंने कहा, मुस्लिम समाज के उलेमा लोग अगर पर्सनल लॉ में बदलाव के लिए गंभीर होते जो यह शाह बानो मामले के समय ही हो गया होता. इसके लिए इतनी लंबी लड़ाई नहीं लड़नी पड़ती है. हमें लगता है कि न्यायालय और सरकार के स्तर से ही मुस्लिम महिलाओं यह लड़ाई अपने अंजाम तक पहुंच सकती है.
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ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे प्रभावशाली मुस्लिम संगठनों ने तीन तलाक़ मामले में अदालती कार्यवाही का विरोध किया है. (प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)
तीन तलाक़ से मुस्लिम महिलाओं की गरिमा पर पड़ता है असर: केंद्र
केंद्र ने उच्चतम न्यायालय से मंगलवार को कहा है कि तीन तलाक़, निक़ाह हलाला और बहु विवाह मुस्लिम महिलाओं के सामाजिक स्तर और गरिमा को प्रभावित करते हैं और उन्हें संविधान में प्रदत्त मूलभूत अधिकारों से वंचित करते हैं.
शीर्ष न्यायालय के समक्ष दायर ताज़ा अभिवेदन में सरकार ने अपने पिछले रुख को दोहराया है और कहा है कि चुनौती के दायरे में आईं तीन तलाक़, निक़ाह हलाला और बहुविवाह जैसी प्रथाएं मुस्लिम महिलाओं के सामाजिक स्तर और गरिमा को प्रभावित करती हैं. साथ ही उन्हें अपने समुदाय के पुरुषों, दूसरे समुदायों की महिलाओं और भारत से बाहर रहने वाली मुस्लिम महिलाओं की तुलना में असमान व कमजोर बना देती हैं.
केंद्र ने कहा, मौजूदा याचिका में जिन प्रथाओं को चुनौती दी गई है, उनमें ऐसे कई अतार्किक वर्गीकरण हैं, जो मुस्लिम महिलाओं को संविधान में प्रदत्त मूलभूत अधिकारों का लाभ लेने से वंचित करते हैं.
शीर्ष न्यायालय ने 30 मार्च को कहा था कि मुस्लिमों में तीन तलाक़, निक़ाह हलाला और बहुविवाह की प्रथाएं ऐसे अहम मुद्दे हैं, जिनके साथ भावनाएं जुड़ी हैं. एक संवैधानिक पीठ इन्हें चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई 11 मई को करेगी.
केंद्र ने अपने लिखित अभिवेदन में कहा कि एक महिला की मानवीय गरिमा, सामाजिक सम्मान और आत्म मूल्य के अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत उसे मिले जीवन के अधिकार के अहम पहलू हैं.
सरकार ने कहा है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में पिछले छह दशक से अधिक समय से सुधार नहीं हुए हैं और मुस्लिम महिलाएं तत्काल तलाक़ के डर से बेहद कमज़ोर बनी रही हैं. मुस्लिम महिलाओं की संख्या जनसंख्या का आठ प्रतिशत है.
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे प्रभावशाली मुस्लिम संगठनों ने मामले में अदालती कार्यवाही का विरोध किया है और कहा है कि ये प्रथाएं पवित्र क़ुरान से आई हैं और इन पर अदालती कार्यवाही नहीं हो सकती.
कई मुस्लिम महिलाओं ने तीन तलाक की प्रथा को चुनौती दी है जिसमें महिला का शौहर अक़्सर एक ही बार में तीन बार तलाक़ बोल देता है. कई बार ऐसा फोन या टेक्स्ट संदेश में ही कह दिया जाता है.
निकाह हलाला की प्रथा तलाक़ को रोकने के इरादे से चलाई जाने वाली प्रथा है. इसके तहत एक पुरुष अपनी पूर्व पत्नी के साथ तब तक दोबारा निक़ाह नहीं कर सकता, जब तक वह महिला किसी अन्य के साथ निक़ाह न कर ले, शारीरिक संबंध न बना ले और फिर तलाक़ लेकर अलग रहने की अवधि इद्दत पूरी करके अपने पहले शौहर के पास वापस न आ जाए.
शीर्ष अदालत ने पहले कहा था कि वह मुस्लिमों के बीच तीन तलाक़, निक़ाह हलाला और बहुविवाह की प्रथाओं के क़ानूनी पहलुओं से जुड़े मुद्दों पर फैसला करेगी लेकिन इस सवाल पर गौर नहीं करेगी कि मुस्लिम क़ानून के तहत दिए जाने वाले तलाक़ अदालतों की निगरानी में होने चाहिए या नहीं. न्यायालय का कहना था कि यह विधायिका के अधिकार क्षेत्र में आता है.
केंद्र ने पिछले साल सात अक्टूबर को शीर्ष अदालत में मुस्लिमों में होने वाले तीन तलाक़, निक़ाह हलाला और बहुविवाह की प्रथाओं का विरोध किया था और लैंगिक समानता और धर्मनिरपेक्षता के आधार पर इन पर दोबारा ग़ौर करने के लिए कहा था.
शीर्ष अदालत ने इस सवाल का स्वत: संज्ञान लिया था कि क्या तलाक़ की स्थिति में या पति की अन्य शादियों के कारण मुस्लिम महिलाओं को लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है?

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