सिनेमा स्क्रीन्स को लेकर मिलीजुली खबरें आती रहती हैं. कुछ में बताया जाता है कि थिएटर्स में फिल्म देखने वाले लोगों की संख्या कम होती जा रही है. इसके लिए वेब प्लेटफॉर्म्स की बढ़ती लोकप्रियता और काफी हद तक पायरेसी को जिम्मेदार माना जा सकता है. दूसरी तरफ ऐसी कंपनियां भी हैं जो थिएटर्स चेन में लगातार अपना पैसा लगा रही हैं. नए-नए शहरों में, नई स्क्रीन्स के साथ वो लगातार लोगों को सिनेमा का अनोखा अनुभव देने के लिए तैयार हैं. थिएटर्स चेन कंपनी मिराज एंटरटेनमेंट ने भी इस बिजनेस को और आगे ले जाने की ठान ली है. उनके मैनेजिंग डायरेक्टर अमित शर्मा से हमने इस बिजनेस के नफा-नुकसान को गहराई से समझने की कोशिश की. आपने इससे पहले मदारी फिल्म भी प्रड्यूस की थी, इरफान ठीक होकर वापस आ गए हैं. अब आपके क्या प्लान्स हैं. देखिए, बॉलीवुड में दो तरह का प्रड्यूसर्स हैं, एक्टिव और पैसिव. हम पैसिव कैटेगरी में आते हैं. हम प्रोडक्ट में भरोसा करते हैं और पैसा लगाते हैं. क्रिएटिव कॉल्स में हमारी दखलंदाजी नहीं होती. इसलिए आपको मदारी जैसी शानदार फिल्म देखने को मिली क्योंकि हम ये मानते हैं कि क्रिएटिव जिस काम को बेहतर कर सकता है वो प्रड्यूसर नहीं कर सकता. इसलिए हम पैसिव प्रड्यूसर की भूमिका में रहना पसंद करते हैं. हमारी अगली फिल्म नील नितिन मुकेश के साथ बाइपास रोड अंडर प्रोडक्शन है. उनके भाई इसके डायरेक्टर हैं, ये फिल्म इस साल के अंत तक सिनेमाघरों में रिलीज हो जाएगी. [caption id="attachment_196836" align="alignnone" width="1002"] नील नितिन मुकेश के साथ अमित शर्मा अगली फिल्म बाईपास रोड लेकर आ रहे हैं[/caption] फिक्की फ्रेम्स में इस बार ये मुद्दा छाया रहा कि, हमारे यहां 9 हजार स्क्रीन्स हैं जबकि चीन में 50 हजार स्क्रीन्स हैं. हम कैसे उनके साथ प्रतियोगिता कर पाएंगे? पहले हम फिक्की फ्रेम्स के डेटा पर ही जाते हैं. 9 हजार स्क्रीन्स हैं, सर्विसेबल कितनी हैं? बाहुबली पूरे इंडिया में 6 हजार स्क्रीन्स में रिलीज हुई थी. साल में 300 स्क्रीन्स से ज्यादा खोल नहीं पा रहे हैं. इतनी ही बंद भी हो रही हैं. जो हम लगभग 6 हजार वाले नंबर पर ही बैठे हुए हैं. अब हम एक और डेटा पर जाते हैं कि हमारे यहां 3 हजार से कम मल्टिप्लेक्स स्क्रीन्स हैं. अरे ये तो बहुत चौंकाने वाला डेटा है जी बिल्कुल है, आप जिसे मॉर्डन सिनेमा कहते हैं. जिसमें आप अपने परिवार के साथ फिल्म देखने जाता पसंद करते हैं वो तो 3 हजार से भी कम हैं. अब आप 3 हजार हो चीन के पचास हजार से कंपेयर करो. हम दुनिया की सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाला देश हैं. अमेरिका के बाद हम सबसे ज्यादा अंग्रेजी बोलने वाले देश हैं. तो हमारे यहां रीजनल सिनेमा से लेकर अंग्रेजी तक सभी तरह की फिल्मों को दिखाने का स्कोप है. हम सबसे बड़ी यंग जनसंख्या वाला देश है, जो फिल्म्स देखने वाली आबादी है. जो फिल्मों के सबसे बड़े शौकीन हैं. जो सब हमारे लिए पॉजिटिव है. जो निगेटिव है वो ये है कि हमारे लोगों के पास फिल्म देखने के अच्छे ऑप्शन्स मौजूद नहीं हैं. पूरे बिहार में 3 मल्टिप्लेक्स हैं. उड़ीसा में 5 मल्टिप्लेक्स हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश में गोरखपुर, इलाहाबाद को छोड़कर अच्छे सिनेमाहॉल हैं कहां? आप आजमगढ़ में, सीतापुर में रहते हैं आपके पास अच्छे सिनेमाहॉल कहां हैं. सिंगल स्क्रीन थिएटर्स तो हैं आप अपने परिवार के साथ सिंगल स्क्रीन्स में फिल्म देखने जाएंगे क्या? नहीं. ऐसे में सिंगल स्क्रीन में जाना पसंद नहीं करते हैं तो क्या आप उसे सर्विसेबल स्क्रीन कहेंगे. और छोटे शहरों की बात अगर आप करें तो मथुरा है. वृंदावन है. इन शहरों की आबादी क्या फिल्म देखने नहीं जाना चाहती. लेकिन स्क्रीन्स हैं कहां हमारे पास. स्मार्टफोन ने आकर अब सभी के लिए ये मौका जरूर पैदा कर दिया है कि हम सब अब ग्लोबल सिटीजन हैं. फिक्की में ही अभी बताया गया कि नेटफिलिक्स के सेक्रेड गेम्स को जितना इंडिया में देखा गया उससे ज्यादा विदेशों में देखा गया. अब आप ही बताएं कि जब आपको इतनी इन्फोर्मेशन फोन पर उपलब्ध हैं तो आप क्यों ऐसे थिएटर्स में फिल्में देखने जाना पसंद करेंगे तो 20 या 30 साल पुरानी टेक्नोलोजी पर आपको फिल्में दिखा रहा है. तो फिर इसका सोल्यूशन क्या है हम इसके लिए बहुत सारे शहरों में मल्टिप्लेक्सेस खोल रहे हैं. अगले 15 महीनों में हम 100 और स्क्रीन्स खोलने जा रहे हैं. 100 स्क्रीन्स हमारी अभी भी शानदार तरीके से सर्विसेबल हैं. चंद्रपुर, नंदूरबार, सीतापुर, गोरखपुर, प्रयागराज, वाराणसी, भागलपुर जैसे छोटे शहरों में जल्दी ही सिनेमास्क्रीन्स के साथ आने वाले हैं. यहां हम टेक्नोलॉजी का साथ कोई कॉमप्रोमाइज नहीं करते. हो सकता है कि जैसा एंबियांस आपको मुंबई में या दिल्ली में मिले वैसा वहां न हो लेकिन टेक्नोलॉजी में आप किसी से कम नहीं पाएंगे. कितना खर्चा आता है आपको वहां एक थिएटर लगाने में? मुंबई या मेट्रो शहरों में अगर हम 2.5 करोड़ का खर्चा कर रहे हैं तो छोटे शहरों में ये दो तक पहुंच जाता है. क्योंकि टेक्नोलॉजी बिल्कुल एक जैसी है. बस फर्क पड़ता है तो रीयल स्टेट का. आप कैसे चुनते हैं कि किस शहर में आप स्क्रीन्स खोलना है ये मैक्रो और माइक्रो दोनों तरह का डेटा देखने के बाद तय किया जाता है. यूपी में किस तरह की फिल्में चलती हैं लेकिन शहर की आबादी क्या देखना पसंद करती है. ये माइक्रो स्तर का डेटा देखकर तय किया जाता है. सबसे अहम सवाल आपसे पूछना चाहता हूं कि लोगों को लगता है कि मल्टिप्लेक्सेस में फिल्में देखना अभी भी बहुत महंगा है. इसके पीछे सीधा जवाब ये है कि जो कॉस्ट आप दे पा रहे हैं वो ही तो हम ले पा रहे हैं. जो कंपनियां इस बिजनेस में हैं वो मार्केट में लिस्टेड हैं. उनका डेटा पब्लिक डॉमेन में है. आप देखें तो वो 15 से 20 प्रतिशत के मार्जिन पर बिजनेस हो रहा है. सरकार ने हमारे बारे में जीएसटी कम करके मदद की. एंटरटेनमेंट टैक्स सबसे ज्यादा हमारे यहां है. एलबीटी के तलवार हमारे ऊपर लटकी हुई है उस पर कभी कोई बात नहीं करता. हमने हमेशा एमआरपी पर टिकट दिया है कितना टैक्स हमने दिया इस पर कोई बात नहीं होती. फिल्म बनाने की कैपिटल कॉस्ट हमारे यहां और विदेशों में एक जैसी ही है. लेकिन एक चीज के बारे में बात नहीं करते है तो वो है कि हमारे यहां फिल्म्स के टिकिट्स सबसे सस्ते हैं. जबकि रीयल स्टेट हमारे यहां दुनिया के काफी देशों से बहुत महंगा है. ऐसे में हम 3 हजार स्क्रीन्स हैं दुनिया 50 से 60 हजार पर बैठी है.तो फिर आप ही देख लीजिए कि हमारे यहां अभी कितना बड़ा स्कोप है.
https://ift.tt/eA8V8J Latest News अभी अभी Firstpost Hindi
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
Sports
Popular Posts
-
The Assam government has issued a travel advisory asking people to avoid travelling to Mizoram. It has also asked those from the state worki...
-
Prime Minister Narendra Modi congratulated newly sworn-in Chief Minister of Telangana Revanth Reddy and assured him of “all possible support...
-
About a week from now, the results of the Uttar Pradesh elections, touted as the “semi-final” before the 2024 Lok Sabha elections, will be k...
No comments:
Post a Comment