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Thursday, 14 March 2019

Loksabha Election 2019: दलितों की सबसे बड़ी नेता क्यों हैं BSP सुप्रीमो मायावती?

उत्तर प्रदेश में दलितों के वोट हासिल करने के लिए बिसात बिछनी शुरू हो गई है. पश्चिमी यूपी में दलितों के बीच उभर रहे एक नए चेहरे भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर से जैसे ही कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने मुलाकात की सियासी पारा चढ़ गया. इसके कुछ ही घंटे बाद एसपी प्रमुख अखिलेश यादव ने मायावती से मुलाकात की. सियासी जानकारों का कहना है कि चंद्रशेखर का उभार मायावती को नुकसान पहुंचा सकता है. इसीलिए मायावती कभी चंद्रशेखर को तवज्जो नहीं देती हैं. हालांकि अभी वो इलेक्टोरल पॉलिटिक्स में नहीं हैं. सियासी जानकारों का कहना है कि कांग्रेस चंद्रशेखर के सहारे दलितों को अपनी तरफ करने की कोशिश में जुटी हुई है, जो कभी उसका कोर वोटबैंक हुआ करता था. सवाल ये है कि क्या यूपी में दलितों को रिझाने की ये कांग्रेस रणनीति सफल हो पाएगी? मायावती पर 'बहनजी: द राइज एंड फॉल ऑफ मायावती' नामक किताब लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार अजय बोस कहते हैं, 'गैर जाटव दलितों में मायावती के खिलाफ नाराजगी है. चंद्रशेखर जैसे कुछ जाटव नेताओं का उभार तो हो रहा है. फिर भी यूपी में दलितों के पास मायावती के अलावा कोई और चारा नहीं है. कोई इतना बड़ा नाम नहीं है.' चंद्रशेखर ने चुनाव लड़ने का एलान किया है. ऐसे में प्रियंका का चंद्रशेखर को हॉस्पिटल में देखने जाना गठबंधन को रास नहीं आया. पश्चिमी यूपी में चंद्रशेखर ने अपना जनाधार बनाया है. जहां मायावती सबसे मजबूत मानी जाती हैं. भविष्य में समीकरण चाहे जो हों लेकिन फिलहाल तो मायावती ही दलितों की सबसे बड़ी नेता मानी जाती हैं. गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में मायावती के समर्थन से बीजेपी पर एसपी की जीत भी यही साबित करती है. न सिर्फ यूपी बल्कि उससे बाहर भी वो राजनीतिक समीकरण बनाने और बिगाड़ने की हैसियत रखती हैं. वो कौन सी ताकत है जिससे माया की एक आवाज पर गोलबंद हो जाते हैं दलित? सवाल ये है कि वो कौन सी ताकत है जिससे मायावती की एक आवाज पर दलित गोलबंद हो जाते हैं. वो कौन सा जादू है कि ज्यादातर दलित वोटर हर हाल में मायावती के साथ रहता है? क्या सिर्फ मायावती का ही दलित वोटों पर एकाधिकार है या फिर कोई और ऐसा नहीं है जिस पर दलित भरोसा कर पाएं. मायावती के सियासी तिलिस्म के अगले एपिसोड में क्या होने वाला है, इसका सबको इंतजार है. राजनीतिक विश्लेषक अंबरीश त्‍यागी कहते हैं, 'मायावती का ज्यादातर वोटर गरीब और दबा-कुचला वर्ग है. इस वर्ग की यूनिटी अलग सी होती है. उसका सबसे अहम सरोकार सम्मान से जुड़ा होता है. इसे बचाने के लिए जो नेता खड़ा होता है उसे वह दिल से समर्थन करता है. मायावती चार बार मुख्यमंत्री रही हैं. जाहिर है उन्होंने अपने शासनकाल में दलितों के उत्कर्ष के लिए कुछ काम किए होंगे.' त्यागी के मुताबिक, 'दलितों के लिए अपने काम की वजह से ही मायावती इस दबे-कुचले वर्ग में राजनीतिक उत्कर्ष का भी प्रतीक हैं. इस समाज के लोगों को जो सपना मायावती के जरिए साकार होता दिखता है वह अन्य दलित नेताओं में नहीं मिलता. इसलिए यह समाज उन्हें कभी निराश नहीं करता. उनके एक इशारे पर खड़ा हो जाता है.' 2018 में गोरखपुर और फूलपुर के लोकसभा उप चुनाव में समाजवादी पार्टी का उम्मीदवार जीता है तो इसमें सबसे बड़ा योगदान बहुजन समाज पार्टी का माना जा रहा है. जीतने के कुछ ही घंटे बाद अखिलेश यादव मायावती के घर यूं ही नहीं गए. वह जानते हैं कि बीएसपी का वोटर मन से उनके उम्मीदवारों के साथ खड़ा था. मायावती ने नवंबर 2017 में ही कहा था, 'बीजेपी व अन्य सांप्रदायिक शक्तियों को सत्ता में आने से रोकने के लिए बीएसपी गठबंधन के बिल्कुल खिलाफ नहीं है. लेकिन पार्टी गठबंधन तभी करेगी जब बंटवारे में सम्मानजनक सीटें मिलेंगीं.' इस बार भी एसपी को समर्थन देते हुए उन्होंने साफ इशारा किया कि वो गठबंधन करने के लिए तैयार हैं लेकिन अपनी शर्तों पर. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि मायावती अपने कोर वोट बैंक की वजह से ही अपनी शर्तों पर अड़ती हैं. अब उन्होंने ऐलान किया है कि कांग्रेस के साथ किसी भी प्रदेश में उनका गठबंधन नहीं होगा. सूत्रों का कहना है कि बीएसपी राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन करना चाहती है. जबकि कांग्रेस जिन राज्यों में मजबूत है वहां उसे शेयर नहीं देना चाहती और यूपी जैसे राज्य जहां पर वह कमजोर है वहां उसका साथ चाहती है. लोकसभा चुनावों की तारीख घोषित हो चुकी है. कांग्रेस ने यूपी में एसपी-बीएसपी गठबंधन के खिलाफ भी प्रत्याशी उतारने शुरू कर दिए हैं. इसलिए कांग्रेस और गठबंधन में संबंध अब मधुर नहीं लग रहे. अपने प्रदर्शन को लेकर चिंतित राजनीतिक दलों ने गोटियां सजानी शुरू कर दी हैं. सियासी मेल-मिलाप भी शुरू हो गया है. मायावती ने शायद महसूस कर लिया है कि उनके पास मौजूद दलित वोट बैंक बीएसपी-एसपी काे अच्छी सीटें दिलाएगा. इसलिए उसे अब कांग्रेस की जरूरत नहीं. दूसरी तरफ कांग्रेस और बीएसपी दोनों को अच्छी तरह पता है कि बीजेपी की जीत में गैर जाटव दलितों का भी समर्थन रहा है. इसलिए बीएसपी यह कोशिश करने में जुटी हुई है कि 2019 में पूरा दलित समाज उसके साथ खड़ा हो. यूपी से बाहर बीएसपी का प्रदर्शन आइए जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में चार बार सरकार बना चुकी बीएसपी की सियासी हैसियत आखिर यूपी से बाहर कितनी है? दलित अस्मिता के नाम पर उभरी बीएसपी ने अपना पूरा ध्यान यूपी की राजनीति में लगाया है. लेकिन जिन प्रदेशों में दलित वोट ज्यादा हैं वहां पर अपने प्रत्याशी जरूर उतारते रही है. हमने चुनाव आयोग के आंकड़ों का विश्लेषण किया तो पाया कि मध्य प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, राजस्थान, बिहार, दिल्ली, आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और कर्नाटक में उसे न सिर्फ वोट मिले हैं बल्कि उसने विधानसभा में सीट पक्की करने में भी कामयाबी पाई है. यूपी से बाहर बीएसपी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 1 से लेकर 11 विधायकों तक रहा है. एमपी, राजस्थान, पंजाब और दिल्ली में मजबूत दिल्ली जैसे राज्य जहां 16.75 फीसदी दलित हैं, वहां बीएसपी ने 2008 में 14.05 फीसदी तक वोट हासिल किया था, जबकि उसके वरिष्ठ नेताओं ने यहां उत्तर प्रदेश जैसी मेहनत नहीं की थी. बाद में दलित वोट कभी कांग्रेस तो कभी आम आदमी पार्टी के पास शिफ्ट होता रहा. सबसे ज्यादा दलित आबादी वाले राज्य पंजाब में जब 1992 में उसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था तो उसे 9 सीटों के साथ 16.32 फीसदी वोट मिले थे. पार्टी के संस्थापक कांशीराम पंजाब के ही रहने वाले थे. मध्य प्रदेश और राजस्थान में वह समीकरण बिगाड़ने की हैसियत रखती है. हमने जिन राज्यों में बीएसपी को मिले वोटों का विश्लेषण किया उनमें दलित 15 से लेकर 32 फीसदी तक है. दलितों की पार्टी माने जाने वाली बीएसपी इन वोटों का स्वाभाविक हकदार बताती है. हालांकि, 2014 के आम चुनावों में मोदी लहर की वजह से पंजाब में भी उसे सिर्फ 1.91 फीसदी ही वोट मिले. जबकि पूरे देश में उसे 4.14 फीसदी वोट हासिल हुआ था. वैसे बीएसपी नेता इसे खराब प्रदर्शन नहीं मानते. गैर हिंदी भाषी राज्यों आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में भी बीएसपी का कभी एक-एक विधायक हुआ करता था. विपक्ष को दलित वोटों की दरकार है, इसलिए बीएसपी उससे अपनी शर्तों पर ही समझौता कराना चाहती है. चुनौतियां भी कम नहीं मायावती पर 'बहनजी: द राइज एंड फॉल ऑफ मायावती' नाम से किताब लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार अजय बोस कहते हैं, 'बीएसपी के राजनीतिक उदय के समय उसमें कई राज्यों के दलितों ने अपना नेता खोजा था, लेकिन मायावती ने न तो ध्यान दिया और न ही कांग्रेस और बीजेपी की तरह क्षेत्रीय नेता पैदा किए. जिसके सहारे उनकी राजनीति आगे बढ़ सकती थी. पंजाब, राजस्थान और मध्य प्रदेश में बीएसपी के आगे बढ़ने का बहुत स्कोप था लेकिन क्षत्रपों के अभाव में वह धीरे-धीरे जनाधार खोती गई. यही वजह है कि चंद्रशेखर और जिग्नेश मेवाणी जैसे नेताओं का उभार हो रहा है जो मायावती की सियासी जमीन खा सकते हैं. हालांकि ये इलेक्टोरल पॉलिटिक्स में कितने सफल होंगे यह नहीं कहा जा सकता.' बोस के मुताबिक, 'जमीनी स्तर प एसपी-बीएसपी के कार्यकर्ता मिल रहे हैं यह गोरखपुर, फूलपुर लोकसभा उपचुनाव के परिणाम से साबित हो गया है. एसपी-बीएसपी के साथ आने से मुस्लिम वोट का विभाजन नहीं होगा. इसका फायदा इस गठबंधन को मिलेगा. जाटव वोट बीएसपी के साथ है. अन्य दलितों की बात नहीं की जा सकती.' बोस के अनुसार, 'मायावती को जनता ने 2014 के लोकसभा चुनाव में नकार दिया था. फिर 2017 के विधानसभा चुनाव में इसका बहुत खराब प्रदर्शन देखने को मिला. इसलिए बीजेपी को सत्ता से बाहर करने के लिए एसपी-बीएसपी-कांग्रेस के गठबंधन की जरूरत है. साथ में राष्ट्रीय लोकदल के अजीत सिंह को लेना चाहिए.' कांशीराम और मायावती के काम में अंतर कांशीराम की जीवनी कांशीराम 'द लीडर ऑफ द दलित्स' लिखने वाले बद्रीनारायण कहते हैं, 'कांशीराम का विजन छोटा नहीं था. वह राष्ट्रीय स्तर की बात करते थे जबकि मायावती सिर्फ यूपी में सिमट गई हैं. हालांकि उनके पास संभावना बहुत है. पंजाब, राजस्थान और मध्य प्रदेश में बीएसपी के फॉलोअर हैं. वहां बीएसपी के बेस वोट का ध्रुवीकरण हो सकता है. बीएसपी जिन राज्यों में खुद अच्छा नहीं कर सकती वहां अपना वोटबैंक शिफ्ट करवाकर गठबंधन के दूसरे दलों के लिए अच्छा कर सकती है.' नारायण के अनुसार, 'दलित कभी कांग्रेस का कोर वोटबैंक हुआ करता था, लेकिन बाद में यह बीएसपी में शिफ्ट हो गया. माना जा सकता है कि कांग्रेस को बीएसपी ने खत्म किया. इसलिए बीएसपी से कांग्रेस को थोड़ा डर तो है.' बीएसपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता सुधींद्र भदौरिया कहते हैं, 'मायावती दलितों की सबसे बड़ी नेता हैं. इस बात को सभी स्वीकार करते हैं. 2014 के बाद जिस तरह से दलितों पर अत्याचार हुए हैं उसे समाज भूला नहीं है. चाहे वो ऊना में दलितों की पिटाई हो या सहारनपुर में. चाहे वो रोहित वेमुला का प्रश्न हो चाहे डॉ. आंबेडकर की मूर्तियां तोड़ने का मामला. मायावती जी ने दलितों की आवाज संसद से सड़क तक उठाई है. उन्होंने दलितों के लिए संसद से इस्तीफा दिया. निश्चित तौर पर दलित उनके साथ थे, हैं और रहेंगे.' (न्यूज18 हिंदी के लिए ओम प्रकाश की रिपोर्ट)

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