इतिहास हमारा खून के आंसुओं से भरा. हमारी सच्चाई धुंधली कब तक रहेगी? आप के पन्नों पर, हमारा सच एक ये भी है जिसको किसी ने जाना ही नहीं है. वर्तमान दौर का व्याख्यान करते हुए मैं मेरे समाज के एक महत्वपूर्ण सच को समाज के सामने खड़ा करना चाहती हूं. इस तरह के सच को समाज के सामने मैं आज अगर बोलती हूं तो मुझे ये सब कहेंगे कि ये एक बहुत गंभीर विषय है, ये तो सामने आना ही चाहिए या वास्तव में ये खामोशी अब तोड़ने का समय हैं. हालांकि सच तो ये है कि इस समाज की अगुवाई आज भी कोई नहीं करना चाहता. जिसका एक उदाहरण 24 तारीख को कुम्भ के अवसर पर किया गया एक प्रदर्शन भी हैं. मैं जिस एरिया से आती हूं (हरियाणा) मैं अगर उसके संदर्भ में बात करूं तो यहां पर वाल्मीकि समुदाए की शिक्षा के स्तर तक पहुंच बहुत मुश्किल हैं. गांव में वाल्मीकि समुदाए की लड़कियों को शिक्षा के समय दूसरे समाज के लोगों का कूड़ा-कचरा ढ़ोना पड़ता हैं. जिसके कारण इनका उज्ज्वल भविष्य मैला प्रथा में दबकर रह जाता हैं. हमारे समाज की महिलाओं के दिन की शुरुआत होने से पहले अंधेरी रात से ये मैला साफ करने का काम शुरू हो जाता हैं. दिन शुरू होने से पहले गांव का कूड़ा, कीचड़, मल- मूत्र सब हमारी महिलाओं और समाज के लोगों के सिर पर होता हैं. यानि देश में कूड़ा-कीचड़, मल-मूत्र सब को सम्मान हैं. लेकिन हमारे समाज के लोगों को इससे भी नीचे देखा जाता हैं. हमारे परिवारों को मैंने हमेशा उसके नीचे दबा हुआ देखा हैं. हर दिन हमारे समाज के लोगों को चुडा बोलकर अपमानित किया जाता हैं. जिसका मतलब है 'कीचड़ से निकला हुआ कीड़ा'. यह कहकर हमें अपमानित किया जाता हैं. ये कैसा सम्मान हैं हमारा? मैला ढ़ोने का काम हमारे समुदाए के जरिए सुबह 4 बजे के अंधेरे से शुरू क्यों होता हैं? ताकि हमें ये काम करते हुए कोई देख ना ले. ज्यादातर हमारे आसपास का जो मैंने माहौल देखा है उसमें हमारे समुदाय के लोगों को उनके अपमानित जीवन की दासता से भरा हुआ हमेशा उनकी सरकार के प्रति आक्रोश देखा है. लेकिन जब देश में विकास के माहौल की बात हुई तो हमारे समुदाय के लोगों को एक बहुत बड़ी उमीद पैदा हुई थी. उनको ये विश्वास था की अब हमारा भी विकास होगा, हमारे बच्चों के भी अच्छे दिन आएंगे. आखिर ये हमारे समुदाए और समाज के लिए एक सपना ही क्यों बनकर रह गया है? आखिर शिक्षा एक मात्र साधन है जिसके जरिए बौद्धिक विकास और बेहतर रोजगार पाया जाने की हम कल्पना कर सकते हैं और हमारे समुदाए से ये काम छुड़वा सकते हैं लेकिन यह दुखद है कि शिक्षा के क्षेत्र में सफाई कामगार समुदाय की स्थिति बेहद चिंताजनक है. इस पर भारतीय सामाजिक संस्थान के जरिए भारत के कई प्रान्तो- उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और दक्षिण के राज्यों जैसे कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश मे किए गए अपने शोध अध्ययन में यह पाया गया कि केवल 0.6 फीसदी बच्चे ही उच्च स्तर की शिक्षा तक पहुंच पा रहे हैं. इस अध्ययन से यह भी साफ होता है कि माध्यमिक स्तर की पढ़ाई के बाद ही पढ़ाई बीच मे छोड़ने की शुरुआत होती है. जिनका मुख्य कारण स्कूल तक पहुंच का नहीं होना है. वहीं अगर स्कूल तक पहुंच हैं तो अध्यापकों के जरिए किए जाने वाला भेद-भाव, आर्थिक स्थिति खराब होना, अपने माता पिता के साथ इसी काम को लगातार किया जाना, जिसके कारण आत्महीनता का भाव होना लगातार छात्रों के जरिए आज भी अध्यापक के द्वारा मैला ढोने वाले समाज से आने वाले बच्चों के साथ सरेआम भेद-भाव किया जा रहा हैं. इस पर रोक में कोई बदलाव नहीं हुआ है. आज भी स्कूल में बच्चों को सफाई का काम करने के लिए मजबूर किया जाता हैं. सफाई कामगार समुदाय के बच्चों की पढ़ाई का एकमात्र स्रोत अक्सर राज्य सरकार के जरिए संचालित स्कूल ही होता है. लेकिन अध्ययन से यह भी सामने आया कि ज्यादातर सरकारी स्कूल RTE एक्ट में निर्धारित न्यूनतम सुविधाओं से भी वंचित है. इन स्कूलों से चढ़ाई करने के बाद भी छात्र अच्छी नौकरी और प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयार नहीं हो पाते और मजबूरन अपना जातिगत रोजगार ही अपनाने पर विवश हैं. हाल के ही कुछ सालों मे सफाई कर्मचारी आंदोलन और कुछ अन्य मानवाधिकार संगठनों के प्रयास से संसद में नए कानून लाए गए और मैला ढ़ोने की प्रथा को अपराध घोषित कराने मे सफलता हासिल की. लेकिन इसके बावजूद भी न तो सेफ्टी टेंक मे होने वाली मौतें थमी न ही इस काम और सफाई के अन्य काम मे शामिल होने वाले नए लोगों की संख्या मे ही कुछ कमी आई है. आखिर वह क्या है जो हमारे पारिवारिक लोगों को अपने जातिगत पेशे से अलग नहीं होने दे रहा? इसका एक मुख्य कारण यह भी रहा है कि हमारा समुदाय न सिर्फ शिक्षा बल्कि अन्य तकनीकी व्यावसायिक कौशल जैसे मेकेनिक, इलेक्ट्रिक काम आदि से भी बिल्कुल वंचित हैं. जिसके चलते इसे अपने जातिगत अकुशल काम को छोड़कर कुछ और काम नही मिल पाता और पीढ़ियां दर पीढ़ियां सफाई के काम से बाहर नही निकल पा रही है. हमें खुशी होगी अगर इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री जी अगर आप हमारे समुदाए के लोगों के लिए कुछ विशेष आरक्षण प्रदान करेंगे. जिससे की हम शिक्षा और नौकरियों में कुछ विशेष स्थान हासिल कर पाएंगे. कुछ नई नौकरियां के साथ ही इस समुदाएं के कुछ बच्चों को जज के पद पर न्युक्त किया जाता तो बहुत बड़ी बात होती. -सफाई का काम करते हुए जो सफाई कर्मचारी अपनी जान गवां चुके हैं. इस काम में उन्हें सफाई सैनिक का दर्जा प्रदान हों. -सफाई कामगार समुदाए के हर बच्चे की प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक फ्री प्रावधान होना चाहिए. -इस काम को जो भी हमारे समुदाए के लोग कर रहे हैं उनका जो वेजेज हो वह फर्स्ट ग्रेड के अधिकारी के वेतन से चार गुना होना चाहिए. क्योंकि इस काम के जरिए हमारे समाज को हर एक पल अपमानित होना पड़ता हैं. इसलिए यह बहुत मुश्किल काम है. अपने आत्म सम्मान का घात करके हमारे समाज के लोग यह काम कर रहे हैं. -सीवर में काम करने हेतु मशीनों का प्रयोग किया जाए. जानवर समझ कर हमारे समुदाए के लोगों का और बलिदान न दिया जाए. -मैला ढ़ोने वाले समाज को आर्थिक, समाजिक, शैक्षणिक और राजनीतिक आधार पर आरक्षण प्रदान किया जाना बहुत महत्वपूर्ण हैं. क्योंकि हमारा समाज हजारों सालों से पुरे देश का मैला ढोने का काम कर रहा है. इतने अपमान झेलकर अपने ही समुदायों में भी हमें अपमानता का जीवन झेलना पड़ता हैं. -हर प्रकार की व्यवस्थाओं से हमें बाहर रखा जा रहा हैं. हमें भी इस देश में सम्मान जनक जीवन चाहिए. वैकल्पिक अवसर मुहैया कराए और हमें भी मुख्या धारा के साथ जोड़े. हीनता का भाव कुम्भ के मेले में हमारे समाज से आने वाली दो महिलाओं श्रीमती ज्योति, छवि देवी और तीन पुरुषों प्यारे लाल, नरेश चन्द, होरीलाल जी के पैर धोने से हमें यह बहुत महान काम दिखाई देता हैं. लेकिन दूसरी तरह यह हमारे अंदर हीनता भी पैदा करता हैं. हमें और अधिक अछूत साबित करने का एक सबुत हैं क्योंकि हमारे समाज के मुताबिक यही एक तरिका अपनाया जाता है कि अगर कोई दलित तुम्हे छुए तो तुरंत स्नान करके अपने आप को पवित्र बनाए और यही तरीका आज हमारे समाज की महिलाओं के पैरों को धोकर उनको सम्मानित किया जा रहा है क्योंकि हम अछूतों की जाति में भी महाअछूत जाति से आते हैं. ऐसी सोच रखने वाले दिमाग को साफ करने की जरूरत हैं न की हमारे पैरों को साफ करने की. यही सोच आज भी वही करने के लिए मजबुर कर रही हैं क्योंकि एक अछूत समाज से आने वाली महिला और पुरुष इस समुदाए के लिए अछूत हैं. इसलिए उनके पैरों पर कहीं मैला ना लगा हो और कहीं हमारे देश की व्यवस्था ही अछूत न हो जाए! इसलिए ये किया गया. फिर भी मन्दिर में आरती के स्थान पर इन्हें सम्मनित क्यों नहीं किया गया? क्योंकि मन्दिर में हमारे समाज के लोगों के लिए स्थान आज भी नहीं हैं. हमारे मैले पैरों को साफ करने के बाद आप हमें सम्मानित कर रहे हैं. क्या ये सम्मान हैं या क्या ये अपमान हैं? इसको हम हमारे मन से क्या बताएं? जब मैं पानी पीते समय ये सम्मानित होने की खबर पढ़ रही थी तो मेरे गले में पानी की घूंट अटक गई क्योंकि ये मैं खबर एक जहर के जैसा देख रही थी जो हमारे समाज के लोगो को इलेक्शन के लिए पिलाया जा रहा हैं. आप हमारे पैरों को छुओ ये कुछ ज्यादा हैं. इतना तो हमें जरूरत भी नहीं हैं कि आप हमारे समाज का वोट बैंक बनाओ. हम आप को यूहीं करोड़ों वोट न्योछावर करते हैं. अगर आप इतने महान व्यक्तित्व बनने को तैयार हैं. तो आप कलम उठाओ और लिखो की आप मैला प्रथा आज से हमारे देश में कोई भी मैला ढोने समाज से आने वाले व्यक्ति नहीं करेगा. -आप पूरे मैला ढोने वाले समाज से आने वाले बच्चों को शिक्षा और नौकरियों में विशेष छूट प्रदान करें. आज तक मेरे समाज की हर मां अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा प्रदान नहीं कर पाई! क्योंकि आप के पूरे समाज का मैला साफ हमारे समाज की माताएं कर रही हैं. जिसकी उचित मजदूरी आज तक किसी ने भी नहीं दी. इसका जिम्मेवार पुरा समुदाए हैं. लेकिन आप के हाथ में ये उधार हैं. अगर आप करना चाहते हैं तो कर सकते हैं. कितनी भी शिक्षा हमारा समुदाए आज तक ले पाया हो, आप सब को सरकारी नौकरी प्रदान करें. हमारे देश की सरकार से हम इस साल के कुम्भ के मेले के अवसर पर अपने-अपने अधिकार की मांग कर रहे हैं. जिसमें हमें कोई दान नहीं, हमारा अधिकार चाहिए. आप सिर्फ हमारा जो हक है वो हमें दे. -इससे बड़ा और कोई काम इस कुम्भ के अवसर पर नहीं हो सकता हैं. हमारे देश के मौजूदा प्रशासन से हमारी मांग है. हमारी इन मांग को स्वीकार किया जाए. -हमारे समाज के कितने लोगों की सीवर के दौरान जान गई हैं. क्या हमारे प्रशासन को उसी डाटा के आधार देखने की जरूरत नहीं हैं कि हमारा समाज कितना संघर्ष कर रहा हैं? क्या कोई नजर उस पर हमारा प्रशासन नहीं डालना चाहेगा. -हमारे मूलभुत अधिकारों से भी हम वंचित हैं. 25 फरवरी को दर्शन रावण जी हजारों मैला ढोने वाले समुदाए के लोगो को लेकर जंतर-मंतर पर अपने वाल्मीकि समुदाए के लिए अलग से आरक्षण की मांग कर रहे थे. जहां पर हजारों की सख्यां में मैला ढोने वाली महिलाएं अपने परिवार से गवाएं लोगों के त्याग में न्याय की मांग कर रही थी. जिनको अभी तक कोई आवास प्रदान नहीं किया गया हैं. न ही कोई उनके बच्चों को सरकारी नौकरी प्रदान की गई हैं. किसी भी प्रकार के मुआवजे से भी अभी वह बहुत दूर हैं. इस प्रकार का माहौल आज देश में सिर्फ इसलिए है क्योंकि जो अधिकार हमें संविधान में प्रदान किए गए हैं. उनका इम्प्लीमेंटेशन नहीं किया जा रहा हैं. क्या कोई और इससे अधिक महान काम नहीं हो सकता हैं? हमारे पैरों को धोकर कुम्भ के मेले में इतना बड़ा काम आपने किया वो हमारे समाज के लिए बहुत बड़ीं पहल थी. लेकिन इसका समय अभी क्यों? इतना पैसा स्वच्छ्ता अभियान के नाम पर खर्च किया गया पर क्या मैला ढोने वाले समाज के लिए अलग से शिक्षा में प्रावधान किए गए? कितनी यूनिवर्सिटी हमारे समाज के नाम पर बनाई गई? क्या जो देश में सफाई का काम करने वाले लोग जो हमारे परिवारों का हिस्सा थे, जिन्होंने अपनी जान कुर्बान की उनका कोई शहिद स्मार्क बनवाया गया हैं? या फिर उनके बच्चों को नौकरी दी गई हो? या हमारे देश के नेताओं ने ऐसे परिवारों के घर जाकर परिवार को कोई सांतवना दी हो? जो समाज आज तक सबसे नीचे के तबके पर हैं उसके लिए वास्तव में कोई विशेष स्कीम हैं? एक वाल्मीकि समाज से आने वाली महिला लीडर के रूप में जब मैं देखती हूं तो मुझे साफ दिखाई देता हैं कि पूरे भारत में आपको सत्ता में आने के लिए मैला ढोने वाले समाज का बहुत बड़ा हाथ रहा हैं. क्या मौजूदा प्रशासन की कोई जिम्मेवारी नहीं बनती हैं? हमारे समाज के बदलाव के लिए कुछ नई योजनाए बनाई जाएं. ताकि हमारा समुदाए भी मेनस्ट्रीम में आ जाए. या फिर हमेशा से हमें सिर्फ एक वोट बैक के नजरिए से ही देखा जाएगा. ये कैसी सोच हैं? इसको बदलने की जरूरत हैं. हम और अधिक लोगों को गंद में डूबकर मरते हुए नहीं देखना चाहते हैं. नहीं तो आने वाले समय में हमारा समाज इसका बड़े पैमाने पर विरोध में आने वाला हैं. जो कि इस व्यवस्था के लिए सही नही होगा. राजनीति के गरमा-गरम माहौल में जब कुम्भ का मैला लगता है तो उसमें लोग स्नान करते है और गीता का पाठ पढ़ा जाता है. जहां पर एक सफाई कर्मचारी जाति (वाल्मीकिन) लोग सफाई का काम करते है. जहां पर जो भी गंदगी या सड़न है, उसको साफ करने का काम इनको सौंपा जाता है. जिसमें तीन आदमी और दो महिलाओं के पैरो को देश के माननीय प्रधानमंत्री अपने हाथों से पीतल के बर्तनों में धोते नजर आए, लेकिन ये बिलकुल समझ से बाहर हो गया कि ये सब 2019 के चुनाव के समय ही क्यों किया गया? जबकि उससे पहले लाखों की संख्या में सफाई कर्मचारी गटर में उतरकर जहरीली गैस के कारण मर चुके हैं. जिनके परिवार की किसी ने सुध तक नहीं ली. भारत देश में लाखों महिलाएं मैला का काम करती है. जिसके कारण उनके शरीर में कई रोग लग जाते हैं. फिर उनकी जगह उनके बच्चों को वही काम करने पर मजबूर होना पड़ता है. इसका कारण ये है कि सुबह चार बजे उनकी मां दूसरे के घरों में जाकर सफाई का काम करती है और उनके बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करती है और उसके काम का कोई समय निर्धारित नहीं किया गया हैं. इसलिए पूरा दिन और देर रात तक वो काम करती है. जिस कारण उनके बच्चों की शिक्षा अधूरी रह जाती है. फिर अगर देखा जाए तो सम्मान के लिए वाल्मीकि जाति के पांच लोगों का चुनाव हुआ! जिसमें उनके पैरों को प्रधानमंत्री ने धोया? क्या सफाई कर्मचारियों की मन की बात सुनने का मन नहीं हुआ? विल्सन बेज्वाडा के आन्दोलन ने भारत में सबसे पहले सफाई कर्मचारी आंदोलन को पूरे भारत के कोने-कोने तक ले जाने और वाल्मीकि समाज को सम्मान का जीवन जीने के लिए 1993 में मैला प्रथा पर बैन हुआ. कानून इम्प्लीमेंट करने को लेकर आंदोलन का अलख जगाया था. सरकार की आंखों पर पर्दे को उठाया था ताकि हमारे लोगों को इस काम से छुटकारा मिल सके. -मैला प्रथा कानूनी रूप से एक अपराध हैं. जिसके आधार पर हमारा कानून बोलता हैं कि अगर कोई भी व्यक्ति किसी से अपना मैला ढोने का काम करवाता हैं या फिर किसी भी व्यक्ति को अगर जबरन गटर में उतारा जाता हैं तो उस पर भी बैन हैं. लेकिन हमारे देश की सरकार ये सरेआम करती हैं. इसके इम्पलिमेंट की जिम्मेवारी क्या सरकार की नहीं? -मैला प्रथा के कानून का सरेआम वॉयलेशन जो हमारे देश के प्रशासन के जरिए किया जा रहा हैं. इसका जिम्मेवार आज क्या सरकार बनेगी? अगर नहीं तो पुरे देश के सिवर आप किस मशीन के जरिए साफ करवा रहे हो? क्या आज तक आपके रिकॉर्ड में कोई मशीन हैं? -तो जो व्यक्ति सिवरेज में मर रहे हैं वो क्या आत्महत्या के लिए सिवरेज में मर रहे हैं? - लेकिन अगर इनके रिकॉर्ड में इसको देखा जाए तो ये हमें कही देखने को नहीं मिलता हैं. सब गैरकानूनी काम हमारा प्रशासन कितने मजबूत तरीके से कर रहा है. इसका कोई जवाब नहीं हैं. -क्या सफाई कामगार समाज का आत्मसम्मान इस देश में वैल्यू नहीं रखता हैं
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