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Thursday 7 February 2019

The Fakir of Venice Review: फरहान अख्तर अपनी पहली तथाकथित फिल्म में बेहद सहज है लेकिन अन्नू कपूर निराश करते है

हिंदी फिल्मों का इतिहास रहा है की जो भी फिल्में लंबे समय तक डिब्बे में बंद रहने के बाद सिनेमाघरों का रुख करती है उनका हश्र बुरा ही होता है. इसमें कोई दो राय नहीं है की लगभग 12 साल से रिलीज की बाट देख रही 'द फकीर ऑफ वेनिस' का भी वही हाल होगा लेकिन अगर फिल्म के मेरिट के बारे में बात करे तो द फकीर ऑफ वेनिस का अनुभव अधपका है. कहानी के बारे में बात करें तो इस फिल्म का जो विषय वस्तु है उसमें क्षमताये काफी अपार है लेकिन निर्देशक आनंद सूरापुर पुरी तरह से कहानी के साथ न्याय नहीं कर पाए है. अगर इंटरवल के पहले ये फिल्म आपको रिझाती है तो वही दूसरी तरफ इंटरवल के बाद ये काफी बोर भी करती है और महज 98 मिनट की यह फिल्म बोझिल हो जाती है. फिल्म की कहानी एक ढोंगी फकीर की है जिसकी मदद से कई लोग अपना उल्लू सीधा करते है द फकीर ऑफ वेनिस की कहानी के केंद्र में है अदि (फरहान अख्तर) और सत्तार (अन्नू कपूर). 29 साल का अदि अमेरिका में आगे की पढ़ाई करने के लिए पैसे जोड़ रहा है और इसके लिए वो छोटे मोटे काम करता रहता है. जब फिल्म की शुरुआत होती है तब वो एक विदेशी फिल्म क्रू के लिए काम कर रहा होता है और सेट पर काम आने वाली चीजें विदेशियों के लिए मुहैया करता है जिसमे गांजा हाथी से लेकर बन्दर सभी कुछ शामिल है. मंदिरा (कमल सिद्धू) के साथ वो किसी जमाने में प्रेम करता था लेकिन अब वो रिश्ता महज दोस्ती तक सीमित है. जब मुंबई के एक आर्ट गैलरी से जुडे लोग उसको ये बताते है की वेनिस की एक आर्ट गैलरी में लाइव प्रदर्शन के लिए उनको हिंदुस्तान से एक फकीर चाहिए तब उसको लगता है की की इस काम से काफी पैसे कमाए जा सकते है. फकीर की खोज उसे बनारस के घाट तक ले जाती है लेकिन अंत में उसको एक्सहिबिशन के लिए फकीर मुंबई के जुहू बीच पर मिलता है. सत्तार गरीब तबके का एक मामूली इंसान है जो घरों को पेंट करके अपने जीवन यापन करता है. जब दोनों को इटली का सात दिन का वीसा मिल जाता है तब वेनिस में इनकी कारस्तानी शुरू होती है. लेकिन सात दिन के बाद इनको जीवन के बारे में काफी सीख मिल जाती है. अगर फरहान अपनी पहली फिल्म में सहज है तो वही अन्नू कपूर ने निराश किया है टेक्निकली ये फरहान अख्तर की पहली फिल्म थी और कहना पड़ेगा की उन्होंने कही से निराश नहीं किया है. होनहार बिरवान के चीक ना पात कहावत को उन्होंने चरितार्थ किया है. कही से भी उनको देख कर नहीं लगता है कि वो पहली बार कैमरा फेस कर रहे है. उनका अभिनय बेहद सहज और नैचुरल है. अन्नू कपूर एक बेहद ही सशक्त अभिनेता माने जाते है लेकिन इस फिल्म में उनकी अभिनय क्षमता को अच्छी तरह से एक्सप्लोर नहीं किया है दूसरे शब्दों में कहे तो वो पुरी फिल्म मे वो अंडर उटीलाईज्ड ही रहते है. बल्कि ये कहना बेहतर होगा की फरहान इस फिल्म में उनके ऊपर हावी रहे है. एक ढोंगी फकीर के रूप में अन्नू कपूर का किरदार एक डायमेंशन में ही कैद रहता है. उनका किरदार ऐसा है की वो ट्रैजेडी में भी कॉमेडी कर सकता है है या फिर बेहद इमोशनल भी हो सकता है लेकिन इन सारे एस्पेक्ट्स को निर्देशक ने कही से भी टटोलने की कोशिश नहीं की है. पूरी फिल्म में अगर अन्नू कपूर के चेहरे पर कोई एक्सप्रेशन नज़र आता है तो वो महज दुःख का ही होता है जो आगे चल कर काफी बोर करता है. मंदिर की भूमिका में कमल सिद्धू का किरदार फिल्म में काफी काम समय के लिए है और उनका काम अच्छा है. आनंद सूरापुर की पकड़ पूरी फिल्म पर ढीली ही है निर्देशक आनंद सूरापुर की यह पहली फिल्म है और उनकी अनुभवहीनता कई जगहों पर नजर आती है. जब अन्नू कपूर अपने सपने में खुद के मौत से दो चार होते है वो बेहद ही बचकाना लगता है. पूरी फिल्म के कॉन्टेक्स्ट में उसकी कोई जरुरत नहीं लगती है. ऐसे सीक्वेंस एक कमर्शियल फिल्म का दायरा बदल सकते है. इसके अलावा जिस तरह से हैंड हेल्ड कैमरा फिल्म में इस्तेमाल किया गया है उसको देख कर चक्कर आना लाजिम है. वेनिस के कई सीन्स को देख कर यही लगता है उनको आनन फानन में शूट किया गया है और एक दिन में ही कई सीन्स कैद कर लिए गए है. मैं इस बात को एक बार फिर से कहूंगा की की इस फिल्म का थीम बेहद ही कमाल का है लेकिन जिस तरह से इसका ट्रीटमेंट किया गया है उसने इस फिल्म को मटियामेट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. इस फिल्म में ए आर रहमान का संगीत है लेकिन उनके एक गाने को सुनने के लिए आपको फिल्म के एन्ड क्रेडिट तक का इंतज़ार करना पड़ेगा. द फकीर ऑफ वेनिस एक बेहद ही सतही फिल्म है जिसको आप बिना किसी मुश्किल के मिस कर सकते है.

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