70 के दशक की बात है. जाने-माने निर्देशक चांद अभिनेता प्राण को लेकर एक फिल्म बना रहे थे. फिल्म में नवीन निश्चल और रेखा भी थे. फिल्म में बिंदू का रोल भी अहम था. इस फिल्म की कव्वाली ‘राज की बात कह दूं तो जाने महफिल में फिर क्या हो’ बहुत ही लोकप्रिय हुई. अपने करियर में चांद ने करीब दो दर्जन फिल्मों का निर्देशन किया लेकिन धर्मा उनकी सबसे लोकप्रिय और कामयाब फिल्मों में रही. फिल्म की शूटिंग के दौरान एक 19-20 साल का लड़का भी सेट पर मौजूद रहता था. उसे फिल्मों का शौक तो था लेकिन अभी आने वाली जिंदगी का रास्ता तय नहीं था. वो पुणे के प्रतिष्ठित फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया में पढ़ाई तो कर रहा था लेकिन आगे क्या करना है इसको लेकर मन में अभी बहुत उथल-पुथल थी. उस रोज फिल्म की शूटिंग देखने में उसका दिल लग गया. उसने देखा कि कैसे परदे पर दिखने वाली फिल्म के पीछे लोग मेहनत करते हैं. ये भी पढ़ें: जन्मदिन विशेष: क्यों अपने नाम के साथ संजय भंसाली ने जोड़ा मां का नाम? निर्देशक चांद जब उससे मिले तो उन्होंने उस लड़के को अपना असिस्टेंट भी रख लिया. उसी रोज उस ‘यंगस्टर’ को अपनी जिंदगी का रास्ता मिला. उसने तय कर लिया कि अब वो भी फिल्में ही बनाएगा. उस लड़के को आज फिल्म इंडस्ट्री प्रकाश झा के नाम से जानती है. जिनका आज जन्मदिन है. ये कहानी और दिलचस्प इसलिए है क्योंकि प्रकाश झा यूं ही बॉम्बे में शूटिंग देखने नहीं गए थे. इसके पीछे की वजह थी उनके कॉलेज का बंद होना. दरअसल प्रकाश झा उस समय फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया में पढ़ाई कर रहे थे. किसी बात को लेकर वहां के निदेशक गिरीश कर्नाड और छात्रों में विवाद हो गया. जिसके चलते हॉस्टल बंद करने की नौबत आ गई. ऐसे में प्रकाश झा बॉम्बे आए और फिर बॉम्बे से वापस लौटे ही नहीं. बिहार के बेतिया जिले में पैदा हुए प्रकाश झा ब्राह्मण परिवार से आते हैं. बचपन में दूर-दूर तक इस बात का इल्म नहीं था कि बड़े होकर फिल्में बनाएंगे. पढ़ाई-लिखाई सैनिक स्कूल में हुई. स्कूल में जिस तरह बच्चों को आर्ट, क्राफ्ट, थिएटर थोड़ा-थोड़ा बताया जाता था वैसे ही उन्होंने भी सीखा. एक ख्वाब जरूर था कि आर्मी में जाना है. लेकिन ये ख्वाब पूरा नहीं हो पाया. आगे की पढ़ाई करने जब दिल्ली विश्वविद्यालय पहुंचे तो एक नई दुनिया सामने थी. जिसमें कला, पेंटिंग, किताबें, थिएटर सब कुछ था. मंडी हाउस में नाटक देखा करते थे. इसी माहौल ने प्रकाश झा के दिमाग में फिल्मकार बनने की चाहत पैदा की. उन्हें समझ आया कि नियमित पढ़ाई के अलावा ये भी एक अच्छा विकल्प हो सकता है. जैसे ही आने वाले कल की तस्वीर साफ हुई उन्होंने उसके लिए सही रास्ता बनाना शुरू किया. बॉम्बे में डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकिंग से प्रकाश झा का करियर शुरू हुआ. गोवा की एक डॉक्यूमेंट्री बनाई. सुप्रसिद्ध नृत्यांगना डॉ. सोनल मानसिंह पर भी एक डॉक्यूमेंट्री बनाई. जिसके लिए प्रकाश झा को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया. सोनल मानसिंह पर डॉक्यूमेंट्री बनाने तक प्रकाश झा फिल्म इंडस्ट्री में एक बड़ा नाम बन चुके थे. फिल्मी सफर की शुरुआत 1984 में हिप हिप हुर्रे नाम की फिल्म से हुई थी. इसके बाद उन्होंने जो फिल्म बनाई वो भारतीय सिनेमा इतिहास की सबसे सशक्त फिल्मों में अब भी गिनी जाती है. वो फिल्म थी- दामुल. बंधुआ मजदूर की कहानी को लेकर की गई इस फिल्म के बाद प्रकाश झा की गिनती समाज और राजनीति की समझ रखने वाले फिल्मकार के तौर पर हुई. ये भी पढ़ें: पंडित रविशंकर ने संगीत और सितार को तार दिया, पर हमने उन्हें क्या दिया? इस फिल्म के लिए उन्हें नेशनल अवॉर्ड भी मिला. मशहूर लेखक विजयदान देथा की कहानी पर आधारित फिल्म परिणिती को भी दर्शकों का काफी प्यार मिला. इसके बाद प्रकाश झा की अगली फिल्म थी मृत्युदंड. इस फिल्म के आते-आते फिल्म का ‘बिजनेस’ और ‘ग्रामर’ बदलने लगा था. लिहाजा जिस फिल्म को प्रकाश झा दामुल जैसा बनाना चाहते थे उसके तरीके में उन्होंने बदलाव किया. ये समय की मांग थी कि उन्होंने मृत्युदंड में माधुरी दीक्षित, शबाना आजमी और ओम पुरी जैसे बड़े नामों को शामिल किया. ये वो दौर था जब एनएफडीसी यानि नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन ने फंडिंग काफी कम कर दी थी. खैर, उस वक्त तक अपनी फिल्मों और टीवी सीरियल मुंगेरीलाल के हसीन सपने बनाकर प्रकाश झा ये साबित कर चुके थे कि उन्हें किसी भी फिल्म का व्यावसायिक पक्ष भी समझ आने लगा है. लिहाजा उन्हें किसी तरह की बड़ी दिक्कत नहीं आई. इस फिल्म के बाद प्रकाश झा की छवि एक ऐसे फिल्मकार की बन गई जो कहानियों को ज्यादा ‘रियलिस्टिक’ तरीके से कहना चाहता है. जो हमारे समाज की बात करता है. समाज में फैली विसंगतियों की बात करता है. कुल मिलाकर प्रकाश झा का सिनेमा लोगों को जिंदगी के सच को देखने जैसा लगने लगा. अपनी अगली फिल्म- गंगाजल से उन्होंने लोगों की इस सोच को और मजबूत किया. गंगाजल के लिए भी प्रकाश झा को सामाजिक मुद्दे पर बनी फिल्मों की श्रेणी में राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया. इसके बाद अपहरण, राजनीति, आरक्षण, सत्याग्रह, जय गंगाजल जैसी फिल्में प्रकाश झा की पहचान बनी. तमाम पुरस्कार झोली में आए. सीरियस सिनेमा को कॉमर्शियली हिट सिनेमा बनाकर प्रकाश झा ने एक नया रास्ता बना दिया. आज भी प्रकाश झा की फिल्मों में एक नयापन दिखाई देता है. ये नयापन उनके ‘पैशन’ की वजह से है. नई पीढ़ी के फिल्मकारों के लिए प्रकाश झा से सीखने को बहुत कुछ है. जिस इंडस्ट्री में लोग एक अदद नेशनल अवॉर्ड के लिए सपना देखते हैं प्रकाश झा 8 नेशनल अवॉर्ड जीत चुके हैं. फिल्मों से अलग प्रकाश झा का एक और परिचय है. वो खुद राजनीति में आना चाहते थे. इसके पीछे की वजह बड़ी दिलचस्प है. प्रकाश झा को लगता रहा कि हमारे देश में चुनाव जीतने के बाद सांसद वो काम नहीं करते जो वो कर सकते हैं. उनका मन था कि वो सांसद बने. लोगों को दिखाएं कि संविधान और सरकार में सांसद के पास कितने अधिकार होते हैं वो किस तरह बहुत कुछ बदल सकता है. लिहाजा प्रकाश झा ने निदर्लीय और बाद में पार्टीगत राजनीति कर चुनाव लड़ा. जो कामयाबी उन्हें फिल्मी दुनिया में मिली थी वो राजनीति में नहीं मिल पाई. लिहाजा अब वो वापस मायानगरी को पूरा वक्त दे रहे हैं. वेबसीरीज पर काम कर रहे हैं. पिछले दिनों उन्होंने लिपस्टिक अंडर माय बुर्का जैसी बोल्ड फिल्म भी प्रोड्यूस की थी.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
Sports
Popular Posts
-
स्थानीय एवं नियोजन समिति की बैठक मंगलवार को प्रोजेक्ट भवन में संपन्न हुई। बैठक में राज्य के अनुसूचित 13 जिलों में अगले 10 वर्षों तक संबं...
-
Ranchi : An estimated 45.14 percent of over 56 lakh eligible voters exercised their franchise till 1 pm on Thursday in the third of the f...
-
New Delhi : The BJP on Thursday condemned the remarks made by its Lok Sabha MP Pragya Thakur in Parliament on Wednesday referring to Nathura...
No comments:
Post a Comment