परीक्षा के पहले पेपर लीक हो जाना या फिर उसके बाद विद्यार्थियों का सुसाइड करना, यह सभी अब भारतीय शिक्षा प्रणाली के अब साइड इफेक्ट्स बन चुके हैं. भारत की शिक्षा प्रणाली अपने आप में एक वृहद पैमाने पर धंधे का रूप ले चुकी है, जिसको एक वर्ग बिजनेस के रूप में चला रहा है. कम शब्दों में कहें तो अब इसमें भी माफिया की घुसपैठ हो चुकी है. वाय चीट इंडिया इसी विषय वस्तु को परदे पर लाने की एक कोशिश है. लेकिन फिल्म को देखने के बाद यही लगता है कि निर्देशक के इरादे तो नेक हैं लेकिन फिल्म बनाने के ढंग पर उनकी नेकी नजर नहीं आती. इसकी लचर स्क्रिप्ट किसी भी तरह से कहानी के साथ न्याय नहीं करती है. नतीजा ये निकला कि बहुत चीजों को एक साथ कहने की कोशिश में सभी चीजें बेहद ही सतही लगती हैं. वाय चीट इंडिया एक बेहद ही साधारण फिल्म है और इसको नंबर मिलेंगे सिर्फ इसके विषय के लिए जो बेहद ही जीवंत है. चीटिंग को किया एक्सपोज़ वाय चीट इंडिया भारतीय शिक्षा प्रणाली में फैले हुए भ्रष्टाचार को बेनकाब करती है. इस फिल्म की कहानी राकेश सिंह (इमरान हाशमी) के बारे में जो परीक्षा प्रणाली में खामियां निकाल कर उसका फायदा उठाता है और उसके बलबूते अपना बिजनेस चलता है. अपने इस बिजनेस में राकेश सिंह मेधावी छात्रों की मदद से दूसरे साधारण छात्रों को परीक्षा में पास कराने में मदद करता है और उनको डिग्री मुहैया कराता है. राकेश सिंह पैसे कमाने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है. पैसे की उसकी भूख के शिकार सभी बनते हैं जिसमें शामिल हैं मासूम विद्यार्थी, राजनेता और शासकीय प्रबंधन से जुड़े लोग लेकिन जब उसका पाला नूपुर (श्वेता धन्वन्तरी) से पड़ता है तब उसको लगता है कि कोई है जो उसे उसके कुकर्मों का एहसास दिला सकता है. फिल्म की कहानी के केन्द्र बिंदु में है सत्तू (स्निग्धादीप चटर्जी) जो राकेश के धूर्त इरादों का शिकार हो जाता है. निर्देशक सौमिक सेन की ढीली पकड़ वाय चीट इंडिया का मकसद बेहद ही साफ सुथरा है और ये भारतीय शिक्षा प्रणाली में फैले भ्रष्टाचार के बारे में बात करती है. बल्कि ये कहना सही होगा कि ये फिल्म एक तरह से उन सभी चीजों का आईना है, जो आजकल आम बात बन चुकी हैं. परीक्षा के दौरान नकल के अलावा इस फिल्म में ये भी दिखाया गया है कि, किस तरह से अमीर बच्चों के लिए भाड़े के मेधावी छात्र प्रॉक्सी का काम करते हैं और उनके लिए परीक्षा में बैठते हैं. अगर आपको इस फिल्म के माध्यम से छोटे शहरों में फैले इस भ्रष्ट धंधे के बारे में आपको सटीक जानकारी मिलेगी फिर भी ये सारी चीज़ें ठीक तरह से निकल कर परदे पर नहीं आ पाई हैं. निर्देशक सौमिक सेन ने अपने नेक इरादों पर खुद ही पानी फेर दिया है. इस फिल्म में शरीर और दिमाग को झकझोरने की ताकत थी लेकिन इसका अंत नतीजा बेहद ही साधारण बन के निकला है. हीरो का महिमामंडन इस फिल्म की सबसे बड़ी खामी मुझे यही लगी कि राकेश सिंह की गलत हरकतों के बावजूद ये फिल्म उसके सिर पर सेहरा बांधने की कोशिश करती है. इस फिल्म के एक सीन में एक स्टूडेंट के सुसाइड को भी दिखाया गया है. एक मौत की बड़ी घटना फिल्म की दशा और दिशा - दोनों ही बदल सकती थी लेकिन वाय चीट इंडिया में ऐसा कुछ भी नहीं होता. फिल्म में ये सीन आता है और चला जाता है. जरा याद कीजिए थ्री इडियट्स का वो सुसाइड सीन जिसने फिल्म देखते वक़्त दर्शकों पर एक बड़ा असर छोड़ था. फिल्म बारी-बारी से एक स्कैम के बारे में बात करती है लेकिन परेशानी यही है कि सिर्फ बातें ही होती है उसका असर न के बराबर आपके मानस पटल पर पड़ेगा. इमरान की एक्टिंग से कंसिस्टेंसी गायब अभिनय के मामले में इमरान हाशमी के काम में पूरी ईमानदारी दिखाई देती है. फिल्म की लिखावट का असर उनके किरदार पर दिखाई देता है. कहने का आशय ये है कि कंसिस्टेंसी उनके किरदार में गायब नज़र आती है. स्निग्धादीप चटर्जी सत्तू के किरदार में, श्रेया धन्वन्तरी नुपुर के किरदार में काफी सटीक हैं. उनका काम आपको पसंद आएगा. इस फिल्म का संगीत बेहद ही साधारण है. इमरान हाशमी की फिल्मों का म्यूजिक अमूमन हिट होता है. इस फिल्म की सबसे बड़ी खामी इसी बात में है कि आपको फिल्म देखते वक्त किसी के लिए भी अफसोस नहीं होता है क्योंकि ये फिल्म एक जगह पर टिकती नहीं है. एक समय ऐसा भी आता है जब आपकी रूचि पूरी तरह से खत्म हो जाती है. वाय चीट इंडिया में आपको एक दिल नजर आएगा लेकिन परेशानी इस बात की है कि उस दिल की धड़कन गायब है.
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