एक दौर था जब ब्रिटिश साम्राज्य में सूर्य कभी अस्त नहीं होता था. पूरी दुनिया में अंग्रेजों की तूती बोलती थी. सर्वशक्तिमान ब्रिटिश राज के खिलाफ 1857 में भारत में हुए बहुत बड़े सशस्त्र आंदोलन को बेहद निर्ममता के साथ कुचल दिया गया था. अंग्रेज भी यह मानते थे अब उन्हें भारत से कोई हिला भी नहीं सकता. साल 1928 में भारत में एक शख्स की ब्रिटिश पुलिस की लाठियों से मौत हुई. और इस मौत ने ब्रिटिश साम्राज्य की चूलों को हिला दिया. 30 अक्टूबर 1928 को पंजाब में महान स्वतंत्रता सेनानी लाला लाजपत राय पर बरसीं ब्रिटिश लाठियां दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य के ताबूत में आखिरी कील साबित हुईं. 17 नवंबर को हुई उनकी मौत के 20 साल के भीतर ही भारत को आजादी मिल गई. 1857 की क्रांति के बाद ब्रिटिश राज ने बड़ी चतुराई के साथ अपनी जड़ों को भारत में मजबूत किया था. लेकिन इन जड़ों को खोदकर भारतीय राष्ट्रवाद की परिभाषा को गढ़ने में जिन महान स्वतंतत्रता सेनानियों भूमिका निभाई थे उनमें लाल लाजपत राय अगली कतार के नेता थे. एक साथ निभाई कई भूमिकाएं पंजाब के मोंगा जिले में 28 जनवरी 1865 को उर्दू के अध्यापक के घर में जन्मे लाला लाजपत राय बचपन से ही बहुमुखी प्रतिभा से धनी थे. एक ही जीवन में उन्होंने विचारक, बैंकर, लेखक और स्वतंत्रता सेनानी की भूमिकाओं को बखूबी निभाया था. पिता के तबादले के साथ हिसार पहुंचे लाला लाजपत राय ने शुरुआत के दिनों में वकालत भी की. स्वामी दयानंद सरस्वती के साथ जुड़कर उन्होंने पंजाब में आर्य समाज को स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई. लाला जी एक बुद्धिमान बैंकर भी थे. आज देश भर में जिस पंजाब नेशनल बैंक की तमाम शाखाएं हमें दिखती हैं उसकी स्थापना लाला लाजपत राय के सहयोग के बिना संभव नहीं थी. एक शिक्षाविद के तौर पर उन्होंने दयानंद एंग्लो वैदिक विद्यालयों का भी प्रसार किया. आज देश भर में डीएवी के नाम से जिन विद्यालयों को हम देखते है उनके अस्तित्व में आने का बहुत बड़ा कारण लाला लाजपत राय ही थे. कांग्रेस में गरम दल के नेता थे लाला लाजपत राय लालाजी देश के उन अग्रणी नेताओं में से थे जिन्होंने ब्रिटिश राज के लुटेरे स्वरूप को पहचान कर भारतीय राष्ट्रवाद की बात करना शुरू किया था. यह ऐसा दौर था जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस किसी भी मसले पर सरकार के साथ सीधे टकराव का रास्ता अपनाने से बचा करती थी. लाला जी ने महाराष्ट्र के लोकमान्य बाल गंगाधर तिलाक और बंगाल के बिपिन चंद्र पाल के साथ मिलकर कांग्रेस के भीतर ‘गरम दल’ की मौजूदगी दर्ज कराई. इन तीनों को उस वक्त लाल-बाल-पाल की त्रिमूर्ति के तौर पर जाना जाता था. ब्रिटिश राज के विरोध के चलते लाला जी को बर्मा की जेल में भी भेजा गया. जेल से आकर वह अमेरिका भी गए जहां सामाजिक अध्ययन करने के बाद वापस आकर भारत में गांधी जी के पहले बड़े अभियान यानी असहयोग आंदोलन का हिस्सा भी बने. साइमन कमीशन के विरोध में हुए शहीद ब्रिटिश राज के खिलाफ लालाजी की आवाज को पंजाब में पत्थर की लकीर माना जाता था. अवाम के मन में उनके प्रति इतना आदर और विश्वास था कि उन्हें पंजाब केसरी यानी पंजाब का शेर कहा जाता था. साल 1928 में ब्रिटिश राज ने भारत में वैधानिक सुधार लाने के लिए साइमन कमीशन बनाया. इस कमीशन में एक भी भारतीय सदस्य नहीं था. बॉम्बे में जब इस कमीशन ने भारत की धरती पर कदम रखा तो इसके विरोध में ‘साइमन गो बैक’ के नारे लगे. पंजाब में इसके विरोध का झंडा लाला लाजपत राय ने उठाया. जब यह कमीशन लाहौर पहुंचा तो लाला जी के नेतृत्व में इसे काले झंडे दिखाए गए. बौखलाई ब्रिटिश पुलिस ने शांतिपूर्ण भीड़ पर लाठीचार्ज कर दिया. लाला लाजपत राय गंभीर रूप से घायल हुए और इन लाठियों की चोट के चलते ही 17 नवंबर 1928 को उनका देहांत हो गया. लाला लाजपत राय की मौत का भगत सिंह कनेक्शन लाला जी की मौत पर एक ओर जहां पूरे देश मे शोक की लहर दौर गई वहीं ब्रिटिश राज के खिलाफ आक्रोश भी फैलने लगा. महान क्रांतिकारी भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू ने लाला जी की मौत का बदला लेने के लिए अंग्रेज पुलिस अधिकारी सांडर्स को 17 दिसंबर 1928 को गोली से उड़ा दिया. बाद में भगत सिंह और उनके साथी गिरफ्तार होकर फांसी पर भी चढ़े. इन तीनों क्रांतिकारियों की मौत ने पूरे देश के करोड़ो लोगों को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ खड़ा करके एक ऐसा आंदोलन पैदा कर दिया जिसे दबा पाना अंग्रेज सरकार के बूते से बाहर की बात थी. लाला लाजपत राय पूरे जीवनभर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ भारतीय राष्ट्रवाद को मजबूती से खड़ा करने की कोशिश में जुटे रहे, उनकी मौत ने इस आंदोलन को और मजूबत कर दिया. लाला जी ने ब्रिटिश लाठियों से घायल होते वक्त सही कहा था. उनके जिस्म पर पड़ी एक-एक लाठी वाकई ब्रिटिश राज के ताबूत की कील साबित हुई. (यह लेख पहले प्रकाशित हो चुका है, लाला लाजपत राय की जन्म जयंती के अवसर पर इसे दोबारा प्रकाशित किया गया है.)
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