इस साल आम चुनाव होने हैं और सभी राजनीतिक पार्टियां गरीबों तक अपनी पहुंच बनाने को लेकर काफी उत्सुक हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा उनका वोट हासिल किया जा सके. ऐसे में स्वाभाविक तौर पर पार्टियों द्वारा उन्हें (गरीबों को) प्रत्यक्ष रूप से आय मुहैया कराने जाने की बात कही जा रही है. कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी ने अब यह आश्वासान दिया है कि अगर कांग्रेस पार्टी सत्ता में आती है तो गरीबों को सीधे तौर पर आय ट्रांसफर की जाएगी. 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण में पहली बार पेश किया गया आइडिया ऐसे में सवाल यह है कि यह आइडिया कितना व्यावहारिक है? दरअसल बेसिक यूनिवर्सल इनकम का आइडिया नया नहीं है. इसे पहले ही 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण में पेश किया जा चुका है. अगर यह अवधारणा यूनिवर्सल यानी सार्वभौमिक है तो इसका मतलब यह है कि हर कोई इसके तहत एक निश्चित आमदनी का हकदार है और अगर विश्व बैंक के 1.90 डॉलर रोजाना के मानक का इस्तेमाल किया जाता है तो इसका मतलब 133 रुपए प्रति व्यक्ति रोजाना यानी तकरीबन 50,000 रुपए सालाना होगा. इसके तहत 130 करोड़ की आबादी के लिए रोजाना 17,300 करोड़ रुपए खर्च करने होंगे! सालाना आधार पर यह काफी बड़ी राशि होगी, लिहाजा यह स्कीम सभी के लिए बजाय निचले और कमजोर तबकों को ध्यान में रखते हुए होगी. यह मानते हुए कि यह कुल आबादी के सिर्फ 20 फीसदी हिस्से के लिए होगी, इस स्कीम की कुल लागत 12.6 लाख करोड़ या केंद्रीय बजट के कुल आकार की तकरीबन आधी रकम बैठती है. निश्चित तौर पर खर्च का यह आंकड़ा व्यावहारिक नहीं है. ये भी पढ़ें: लोकसभा का महासमर: मोदी हार भी गए तो कांग्रेस को क्या मिलेगा? जाहिर तौर पर यूनिवर्सल बेसिक इनकम अपने संशोधित स्वरूप में न तो यूनिवर्सल और न ही अनोखी स्कीम होगी बल्कि यह एक तरह से मौजूदा योजनाओं के पुनर्गठन जैसी होगी. दरअसल, सिस्टम में इसके लिए पर्याप्त पैसा भी नहीं है किजा इसे अलग तरीके से लागू किया जा सके. पहले भी कई सरकारों की तरफ से विभिन्न सामाजिक योजनाओं के मामले में ऐसा किया जा चुका है. इसके तहत स्कूल, स्वास्थ्य, लड़कियों की शिक्षा, सिंचाई बीमा, पर्यावरण, बीज, महिलाओं, पिछड़ी जातियों आदि से संबंधित विभिन्न योजनाओं की जगह विभिन्न नामों से इसी तरह की नई योजनाओं का ऐलान किया गया. आवंटन में भी इसी तरह की प्रक्रिया अपनाई जाती है. हालांकि योजनाओं की विशेषताओं में थोड़ा बहुत अंतर होता है. सरकार का बजट भी कुछ हद तक इसी तरह से काम करता है, क्योंकि सरकार सभी समस्याओं का निदान नहीं है. कई योजनाओं का इसमें करना होगा विलय यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम कुछ मायनों में डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर जैसी होगी, जहां इसके लिए चुने गए परिवारों को कुछ पैसे दिए जाएंगे और उनसे अपनी मर्जी के हिसाब से इसे खर्च करने को कहा जाएगा. यह प्रक्रिया लोगों को आजादी देती है, लेकिन सामाजिक नियमों के पालन के आधार पर इसमें मामला इधर-उधर होगा यानी पैसे का सही उपयोग होने के बजाय लाभार्थी इसे कहीं दूसरी जगह पर इसका इस्तेमाल कर सकते हैं. मुमकिन है कि एक गरीब परिवार अपनी बेटी को स्कूल भेजने की बजाय पैसे का उपयोग कुछ और काम के लिए कर दे. हालांकि, मिड-डे मील योजना चालू रहने की स्थिति में बच्चे के स्कूल जाने से ही उन्हें खाना मिल पाएगा. ऐसे में बच्चे के स्कूल जाने की संभावना ज्यादा रहती है. चूंकि मौजूदा योजनाओं के विलय के बिना यूनिवर्सल बेसिक इनकम के लिए सामान्य या खास लोगों से जुड़ी प्रक्रिया अपनाना संभव नहीं है, लिहाजा यह देखना जरूरी होगा कि कौन सी योजनाओं का विलय किया जा सकता है और किन संसाधनों का उपयोग संशोधित यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम के लिए किया जा सकता है. सभी चीजों के लिए डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर उचित नहीं सभी सामाजिक और आर्थिक योजनाओं का विलय नहीं किया जा सकता है क्योंकि बजट का एक बड़ा हिस्सा वेतन (शिक्षकों, डॉक्टरों, नर्स आदि) को लेकर प्रतिबद्ध है. उदाहरण के तौर पर वित्तीय वर्ष 2019 के लिए 24.4 लाख करोड़ के कुल प्रस्तावित खर्च का तकरीबन आधा हिस्सा व्यवस्थागत चीजों और ब्याज के भुगतान में किया जा रहा है, जबकि अन्य 3 लाख करोड़ पूंजीगत खर्च के लिए उपयोग किया गया है. अन्य 3 लाख करोड़ रक्षा मंत्रालय के राजस्व खर्च में जाता है और केंद्र की प्रायोजित योजनाओं और अन्य ट्रांसफर पर तकरीबन 5 लाख करोड़ रुपए खर्च होते हैं. ऐसे में सब्सिडी और रोजगार कार्यक्रमों के अलावा बड़ी चीजों के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं बची है. सरकार के लिए एक उलझन (न सिर्फ इस सरकार बल्कि किसी अन्य सरकार के लिए भी) यह होगी कि अगर मौजूदा योजनाओं को बंद कर रकम को यूनिवर्सल बेसिक इनकम फंड में ट्रांसफर किया जाए तो इन योजनाओं से जुड़ी मशीनरी का क्या होगा. एफसीआई जैसे संस्थानों के लिए यह और प्रासंगिक है जो खाद्यानों को खरीदने के लिए नोडल एजेंसी है. खाद्य सब्सिडी से जुड़े वेयरहाउस हैं, जो इन खाद्यान्नों का भंडारण करते हैं. साथ ही, एफपीएस उपभोक्ता संपर्क की तरह काम करते हैं. अगर सरकार सिर्फ कैश ट्रांसफर मुहैया कराना चाहती है तो खरीद की पूरी प्रणाली को बदलना होगा, जिसके तहत सिर्फ बफर स्टॉक के लिए किसानों से सीमित मात्रा में खरीदारी की जाती है. राशन दुकानों (एफपीएस) को निजी दुकानों में बदलना होगा. इन दुकानों को खुद के लिए चिंता करनी होगी. दरअसल ऐसी 5.3 लाख दुकानें है जिन्हें खुद को नए सिरे से बदलना होगा. मंत्रालयों के लिए भी कुछ ऐसा ही होगा जिन्हें स्टाफ की तैनाती के मामले में बड़े पैमाने पर फेरबदल करना होगा. दरअसल, नई परिस्थिति में इन स्टाफ की ज्यादा जरूरत नहीं रह जाएगी. इसके अलावा, आयुष्मान भारत या बीमा फसल जैसी कुछ योजनाओं को तुरंत शुरू किए जाने के बाद इनका विलय नहीं किया जा सकता है, इसलिए इन योजनाओं को जारी रखना होगा. दरअसल, सत्ता में बदलाव का मतलब यह होगा कि प्राथमिकताएं अलग हो सकती हैं. आदर्श स्थिति में राज्यों को भी योजनाओं को यूनिवर्सल इनकम फंड में विलय करना चाहिए, ताकि इसका दायरा व्यापक हो सके. हालांकि राजनीतिक तौर पर यह शायद व्यावहारिक नहीं हो क्योंकि राज्य अपनी प्राथमिकताओं को आगे बढ़ाना पसंद करेंगे. मनरेगा शायद इस एकीकरण के लिए उपयु्क्त योजना है और यह तर्कसंगत भी है. मनरेगा के लिए 55,000 करोड़ रुपये का आवंटन है जिसका उपयोग वैसे भी कम उत्पादक लक्ष्यों के लिए होता है. हालांकि, 1.90 डॉलर/रोजाना के तहत 1.1 करोड़ लोगों को इसके दायरे में समेटा जा सकता है. यह ज्यादा नहीं है लेकिन इसके जरिये आसान शुरुआत हो सकती है. हालांकि, ऐसे लोगों की पहचान करना चुनौती होगी. वैसे गरीब लोग जिनके पास जेएएम सुविधाओं- जन धन खाता, आधार पहचान और मोबाइल फोन नंबर नहीं है, उन्हें पैसे ट्रांसफर करना मुश्किल कार्य होगा. ये भी पढ़ें: क्या 27 प्रतिशत आरक्षण की मांग से सवर्ण आरक्षण का मुकाबला कर पाएंगे कमलनाथ योजनाओं के विलय में एक बड़ी बाधा यह है कि कागजों पर इन सभी का लक्ष्य काफी बेहतर है, लेकिन इनके अमल पर काम ठीक से नहीं हो पा रहा है. मिड-डे मील स्कीम यह सुनिश्चित करती है कि बच्चे स्कूल जाएं और लड़कियों के मामले में भी यह बात लागू होती है. राशन दुकान यह सुनिश्चित करते हैं कि अनाज मुहैया कराए जाएं जबकि कैश ट्रांसफर के कारण परिवार के पुरुष द्वारा इस पैसे का दुरुपयोग शराब पीने में किए जाने का खतरा होता है. यह हकीकत है और इसे खारिज नहीं किया जा सकता है. बेसिक इनकम मुहैया कराने के लिए योजनाओं का विलय करने से सरकार के अन्य मकसदों को भी छोड़ना होगा. वास्तव में इसका मतलब यह है कि केंद्र या राज्य के बजट इस तरह की प्रक्रिया की बात कर सकते हैं लेकिन स्थायी प्रतिबद्धताओं और इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने जैसी अन्य जिम्मेदारियों के लिए कोई अन्य फंड उपलब्ध नहीं है. पैसे को एक योजना से हटाकर यूनिवर्सल बेसिक इनकम योजना में लाने से भविष्य में नारेबाजी के लिए भी गुंजाइश कम होगी. लिहाजा ऐसा किए जाने की संभावना कम है. डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर का मामला पेंशन के मामले में सफल है, लेकिन जहां तक खाद्यान्न के मामले में बड़े पैमाने पर ऐसा किए जाने की स्थिति में यह संस्थागत ढांचों में अफरातफरी पैदा कर सकता है. दरअसल, पूरी आबादी द्वारा चावल या गेहूं खरीदने के लिए एक साथ बाजार की तरफ आने पर कीमतों में भारी तेजी आ जाएगी. ऐसे में यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम को शुरू में सिर्फ वाकपटुता के साथ शुरू करना होगा और राज्यों के सहयोग के साथ धीरे-धीरे इसे आगे बढ़ाया जा सकता है. इसे सफल बनाने का एकमात्र यही तरीका है. (लेखक केयर रेटिंग्स में चीफ इकॉनमिस्ट हैं. उन्होंने Economics of India: How to fool all people for all times की किताब भी लिखी है.)
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