दीपावली पर खूब मिठाइयां खाना. बांटना और बटोरना. ऐसा बचपन से देखता आया था. लेकिन इस बार अपनी दीपावली बिना मिठाई के बीती क्योंकि अखबार में यह खबर पढ़ ली थी कि इस साल दीपावली पर छह हजार करोड़ रुपए का मिठाइयों का कारोबार हुआ. इसमें सत्तर फीसदी मिठाइयां मिलावटी थीं. लेकिन मिठाई न खाने की बड़ी वजह थी अपने मित्र बचानू साव का दुनिया से चले जाना. बचानू काशी के ‘मिष्ठान पुरुष’ थे. बनारसियों के ‘मिष्ठान महाराज’. बचानू बिरले इसलिए थे कि मेरे जैसे सैकड़ों लोगों में मिठाई खाने-खिलाने की समझ और संस्कार उन्हीं ने बनाए, इसलिए बचानू मेरे लिए खास थे. सेहतमंद मिठाइयों का शोध और प्रयोग राज किशोर गुप्त उर्फ बचानू साव बनारस की रईस परंपरा के हलवाई थे. बनारस की मिठाई का एक सौ पचास साल का इतिहास बचानू की परंपरा में था. मिठाई में शोध, प्रयोग और पौष्टिकता बढ़ाने के उपायों में इनका कोई सानी नहीं था. उनकी कोशिश होती थी कि मिठाइयों को कैसे सेहतमंद बनाया जाए. वे बनारस की विभूति थे. महात्मा गांधी हों या पंडित नेहरू, मार्शल टीटो हों या इंदिरा गांधी या फिर सिरीमावो भंडारनायके या दलाई लामा, बचानू सबको खुद पकाकर भोजन करा चुके थे. इसलिए वे किसी और को कुछ समझते नहीं थे. ये भी पढ़ें: कुंभ की त्रिवेणी में नदी नहीं बल्कि करोड़ों लोगों की आस्था बहती है भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब तिरंगा फहराना जुर्म था. तिरंगा देख फिरंगी शासन भड़कता था, तब बनारस में बचानू साव ने तिरंगी बरफी का ईजाद किया. लेकिन मिठाइयों में रंग डालकर नहीं. काजू से सफेद, केसर से केसरिया और पिस्ते की हरी परत से तिरंगी बरफी बनाई. बाद में यह राष्ट्रीय आंदोलन की मिठाई बन गई. स्वतंत्रता संग्राम में एक हलवाई का इससे बेहतर योगदान क्या हो सकता है. मिठाइयों का अर्थशास्त्र औऱ समाजशास्त्र बचानू साव सिर्फ मिठाइयों की पौष्टिकता नहीं, उसके अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र का भी खयाल रखते थे. अगर काजू का मगदल गरीब आदमी की पहुंच से बाहर है तो वे काजू हटा, बाजरे का मगदल बनाते थे. उसकी तासीर और स्वाद वैसे ही रख उसे सामान्य आदमी की पहुंच में ला देते थे. मगदल एक ऐसी मिठाई होती है, जो उड़द दाल, काजू, जायफल, जावित्री, घी और केसर से बनती है. यह स्मृति और पौरुष बढ़ानेवाली मिठाई होती है. आयुर्वेद और यूनानी ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है. आपको कब्ज है तो काजू की मिठाई से रोग और बढ़ सकता है. पर अगर उसके साथ अंजीर मिलाकर बरफी बने तो यह दवा बनेगी, जो फायदेमंद होगी. बचानू के ऐसे कुछ फॉर्मूले थे. कब कौन सी और कैसी मिठाई खानी चाहिए, इसका ज्ञान मुझे उन्हीं से हुआ था. ठंड में वातनाशक, वसंत में कफनाशक और गरमियों में पित्तनाशक मिठाइयां होनी चाहिए. वात, पित्त और कफ. आयुर्वेद का पूरा चिकित्सा विज्ञान इसी में संतुलन बिठाता है. बादाम सोचने-समझने की ताकत बढ़ाता है, पर उसका पेस्ट कब्ज बनाता है. बादाम के दो भागों के बीच अन्नानास का पल्प डाल उन्होंने एक मिठाई बनाई ‘रस माधुरी’. इसमें फाइबर भी था और ‘एंटी ऑक्सीडेंट’ भी. नागरमोथ, सोंठ, भुने चने के बेसन और ताजा हलदी से वे एक लड्डू बनाते थे ‘प्रेम वल्लभ’. जो कफनाशक था. स्वाद में बेजोड़. ये भी पढ़ें: मामाओं की विस्तृत और समृद्ध परंपरा कहां से चलकर कहां पहुंच गई? अस्पताल में मिठाइयों का ढेर मिष्ठान निर्माण में वे सिर्फ ऋतुओं का ही ध्यान नहीं रखते थे बल्कि उसके डिटेल में भी जाते थे. सूर्य के उत्तरायण और दक्षिणायण होने से उनकी मिठाइयों की तासीर और तत्त्व बदल जाते. बचानू और मिठाइयों का ऐसा गहरा नाता था कि वे मिठाई के साथ ही दुनिया छोड़ना चाहते थे. दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में जब उनके दिल का ऑपरेशन हुआ तो एक रोज वे डॉक्टर से उलझ पड़े. उनके कमरे में मिठाइयों के ढेर सारे पैकेट रखे थे. उन्हें देखने आनेवालों को खिलाने के लिए. पर डॉक्टर ने समझा, हृदय की धमनियां बंद हैं. इतनी मिठाई कहीं वे खा तो नहीं रहे हैं. इसे कमरे से तुरंत हटाएं. वे हटाने को तैयार नहीं थे. पंचायत करने मैं गया. उन्होंने कहा, 'जान भले चली जाए, पर मिठाई को मैं अपने से दूर नहीं करूंगा.' मैंने डॉक्टर से कहा, 'वे खाते नहीं हैं, सिर्फ देखते हैं. मिठाइयों से उनका गहरा नाता है. मिठाई के बिना उनकी जिजीविषा कम हो सकती है. इसलिए मिठाइयों को उनके कमरे में ही रहने दें.' बचानू साव का ऑपरेशन हुआ. वे ठीक होकर बनारस लौट गए. बचानू ‘सेमी-लिटरेट’ थे. धर्म, दर्शन, साहित्य और संगीत पर वे हर बनारसी की तरह बहस कर सकते थे. काशी विश्वनाथ मंदिर से जो ‘सुप्रभातम्’ गत चालीस वर्षों से प्रसारित हो रहा है, वह इन्हीं सज्जन की देन है. पूरे देश के संगीतकारों-गायकों को मिठाई खिलाकर उन्होंने उनसे सुप्रभातम् गवा लिया. ‘सुप्रभातम्’ गाने के एवज में जब वे एम.एस. सुबुलक्ष्मी के पास पत्रं पुष्पम् का चेक लेकर पहुंचे तो सुबुलक्ष्मी ने चेक लौटा दिया और कहा, इसे आप अपने ट्रस्ट में लगाएं. दिन के हिसाब से यह प्रसारण हर रोज बदलता है. कोई ऐसा बड़ा संगीतकार नहीं है, जिसने ‘सुप्रभातम्’ न गाया हो. आज भी ‘सुबहे बनारस’ की शुरुआत इसी ‘सुप्रभातम्’ से होती है. ये भी पढ़ें: नई पीढ़ी को कैसे सुनाएंगे- 'चूंचूं करती आई चिड़िया, दाल का दाना लाई चिड़िया' गलियों और गालियों के बाहर बनारस के सांस्कृतिक लिहाज से वे रत्न थे. हर साल ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी को देश की सभी नदियों से जल लाकर वे काशी विश्वनाथ का अभिषेक करवाते थे. अभिषेक में प्रमुख जल बारी-बारी से किसी एक ज्योतिर्लिंग से आता था और उसी ज्योतिर्लिंग के पुजारी काशी विश्वनाथ का अभिषेक करते थे. देश की सांस्कृतिक एकता को मजबूत करने का उनका यह अनूठा प्रयास था. जो संस्कृति हमारे बाहर-भीतर हर जगह समाप्त हो रही है, बचानू उसे पुनर्जीवित करना चाहते थे. मिठाइयों के एवज में हम उन्हें लिफाफा देते, जिसमें कुछ शब्द होते, अर्थ नहीं. वे कहते, शब्द में भी तो अर्थ ही होता है. (यह लेख हेमंत शर्मा की पुस्तक 'तमाशा मेरे आगे' से लिया गया है. पुस्तक प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गई है.)
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