हरियाणा में कांग्रेस ने नया प्रभारी गुलाम नबी आजाद को बनाया है. कमलनाथ को मध्य प्रदेश की कमान मिलने के बाद से ये पद खाली था. प्रियंका गांधी के पूर्वी यूपी का प्रभारी महासचिव बनने की वजह से मीडिया का भी ध्यान इधर नहीं गया है. हरियाणा राजनीतिक लिहाज से महत्वपूर्ण राज्य है. दिल्ली से सटा होने के कारण सभी राजनेताओं की दिलचस्पी इस राज्य में है. पहले कांग्रेस का दबदबा था लेकिन 2014 से बीजेपी का इस राज्य में शासन है. इससे पहले 10 साल भूपेंद्र सिंह हुड्डा की अगुवाई में कांग्रेस ने सरकार चलाई लेकिन 2014 से कांग्रेस तीसरे नंबर की पार्टी बन गई है. पूर्व मुख्यमंत्री का जिक्र इसलिए भी है कि 25 जनवरी को हुड्डा के कई ठिकानों पर सीबीआई ने छापा मारा है. कांग्रेस ने पलटवार में सीबीआई को चेताया है कि सरकार बदलने वाली है इसलिए सीबीआई को दायरे में काम करना चाहिए. हरियाणा में कांग्रेस में तकरार हरियाणा में कांग्रेस में दबदबे को लेकर चार साल से आपस में संघर्ष चल रहा है. पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा संगठन पर कंट्रोल के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं लेकिन आलाकमान ने अशोक तंवर को पार्टी का प्रमुख बनाए रखा है. अशोक तंवर सिरसा से सांसद रह चुके हैं. यूथ कांग्रेस के कई साल तक मुखिया भी रहे हैं. इससे पहले जेएनयू में कांग्रेस का झंडा बुलंद करते रहे हैं. दोनों के बीच खींचतान का नजारा मंज़रे-आम पर है. अपनी ताकत दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं. यहीं से कांग्रेस की परेशानी की शुरुआत है. हरियाणा जैसे छोटे राज्य में कई गुट हैं. इन दो गुटों के अलावा किरण चौधरी और पार्टी के मीडिया प्रमुख रणदीप सुरजेवाला का भी गुट है. कांग्रेस में हाल में वापसी करने वाले कुलदीप बिश्नोई भी राज्य की राजनीति में खासा दखल रखते हैं. हालांकि भूपेंद्र सिंह हुड्डा के 2004 में सीएम बनने के बाद अलग पार्टी बना ली थी लेकिन कांग्रेस में वापसी के बाद कार्यसमिति के सदस्य हैं. कांग्रेस में बैलेंस करने के लिए दीपेंद्र हुड्डा को भी वर्किंग कमेटी का मेंबर बनाया है. ये भी पढ़ें: अपने वर्तमान विधायकों और मंत्रियों को लोकसभा चुनावों में नहीं उतारेगी AAP नए प्रभारी की चुनौती गुलाम नबी आज़ाद को राहुल गांधी ने सोच समझकर ये जिम्मेदारी सौंपी है. पहले तो आज़ाद से ज्यादा सीनियर लीडर हरियाणा कांग्रेस में नहीं है. उनका कांग्रेस संगठन में काम करने का कई दशक का तर्जुबा है इसलिए खेमेबंदी को काबू करने में अहम किरदार निभा सकते हैं. सभी गुटों को एक साथ बैठाकर कांग्रेस को मज़बूत कर सकते हैं. लोकसभा चुनाव में वक्त कम है. कांग्रेस का राज्य से सिर्फ एक सांसद है, जिसकी तादाद बढ़ाने में कड़ी मशक्कत करनी पड़ सकती है. हरियाणा में पार्टी के प्रमुख अशोक तंवर का कहना है कि गुलाब नबी आज़ाद साहब सीनियर लीडर है. उनके साथ मिलकर कांग्रेस की मजबूती के लिए काम करेंगे. उनके अनुभव से लाभ उठाएंगे. हरियाणा में पार्टी की कमान अशोक तंवर के पास है. चुनाव संगठन को ही लड़ना है. जींद में उपचुनाव के बाद ही पार्टी के प्रभारी के साथ औपचारिक बैठक के बाद ही दिशा तय हो पाएगी. हालांकि माना जा रहा है कि नए प्रभारी पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के करीबी है लेकिन राहुल गांधी की निगाह इस राज्य पर है इसलिए संभलकर ही चलना पड़ेगा. प्रभारी का काम सभी को साथ लेकर चलना होता है. राहुल गांधी हर राज्य में नेताओं को बैठाकर एक साथ काम करने की नसीहत दे रहे हैं. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में लगातार चुनाव से पहले राहुल गांधी ने कोशिश की कि सब साथ मिलकर पार्टी को मजबूत करें, लेकिन जब राह नहीं दिखाई दी तो राजस्थान में सभी बड़े नेताओं को चुनाव में उतार दिया था. इस तरह छत्तीसगढ़ में भी किया गया, मध्य प्रदेश अपवाद है जहां कोई बड़ा नेता चुनाव नहीं लड़ा, सबको दूसरे खेमे से खतरा महसूस हो रहा था. अर्जुन सिंह के पुत्र और बीती विधानसभा में नेता विरोधी दल अजय सिंह राहुल भितरघात की वजह से चुनाव हार गए है. हरियाणा में काम हरियाणा में प्रभारी ना होने की वजह से संगठन का विस्तार नहीं हो पाया है. जिला स्तर की कमेटी बननी है. अभी पुराने लोग ही काम कर रहे हैं. हालांकि आपसी मतभेद की वजह से संगठन विस्तार में देरी हो रही है लेकिन अब उम्मीद है कि जल्दी इस काम को अंजाम दे दिया जाएगा. इसके अलावा लोकसभा चुनाव के लिए उम्मीदवारों का चयन भी बड़ा काम है. लोकसभा चुनाव के लिहाज से हरियाणा बड़ा राज्य नहीं है. ये भी पढ़ें:बीजेपी के 'कौन बनेगा पीएम' सवाल का जवाब क्यों नहीं देना चाहता एकजुट विपक्ष 2004 और 2009 में कांग्रेस को सफलता मिली थी. उत्तर भारत में पंजाब के बाद हरियाणा में कांग्रेस का स्कोर बढ़ने की संभावना है. यहां बीजेपी को मोदी लहर में सत्ता मिली है लेकिन राज्य का मिजाज अलग है. इसका फायदा कांग्रेस को मिल सकता है. जाट बनाम गैर-जाट कांग्रेस की 2004 से पहले राजनीति गैर-जाट पर टिकी थी लेकिन 2004 में हुड्डा की अगुवाई में जाट राजनीति की शुरूआत हुई, हालांकि, जाट पूरी तरह कांग्रेस के समर्थन में नहीं रहा है. 2009 में भी चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनी लेकिन इसे अपार सफलता नहीं कही जा सकती है, इसमें कई निर्दलीय विधायकों का सहयोग था. इससे पहले भजनलाल कांग्रेस के गैरजाट चेहरा थे. लेकिन 2004 में उनको आलाकमान की हिमायत नहीं मिली थी. कांग्रेस फिर इस उहापोह में है. गैर-जाट की राजनीति में बीजेपी ने अपनी पैठ बना ली है. जहां तक जाट का सवाल है, उसकी प्राथमिकता हर चुनाव में चौधरी ओम प्रकाश चौटाला रहे हैं. अब इस परिवार में दो फाड़ होने से जाट बंट सकते हैं, जिसका फायदा कांग्रेस को मिल सकता है. कांग्रेस ने अशोक तंवर को आगे करके दलित वर्ग को साधने की तैयारी की है. ये वोट जाट वोट की बराबरी पर है. दोनों वोट के बीच ज्यादा फर्क नहीं है लेकिन जाट सामाजिक तौर पर मजबूत हैं. जाट को कांग्रेस ने रिजर्वेशन भी दिया था लेकिन मोदी लहर में जाट सीएम होते हुए कांग्रेस का भला नहीं हुआ है. पुराने कांग्रेस के नेताओं पर निगाह 2014 में कई लोगों ने तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा से नाराज़ होकर कांग्रेस से अलग हो गए थे. इसमें कुछ बड़े नेता भी थे. वर्तमान सरकार में मंत्री चौधरी बिरेंद्र सिंह ने बीजेपी का दामन थाम लिया था. हालांकि जाट नेताओं के बड़े चेहरे में से थे. राव इंद्रजीत सिंह भी बीजेपी में चले गए जबकि कांग्रेस के बड़े यादव नेता थे. मेवात और आसपास उनका असर था. फरीदाबाद से पूर्व सांसद अवतार सिंह भडाना बीजेपी से यूपी में विधायक हैं. ये गुर्जर समुदाय से हैं. इसके अलावा अंबाला से विधायक विनोद शर्मा ने भी अलग राह पकड़ी थी, लेकिन उन्हें कोई राजनीतिक फायदा नहीं हुआ है, जो ब्राह्मण नेता के तौर पर स्थापित थे. अब हालात बदल रहे हैं. कयास लग रहा है कि इनमें से कुछ की वापसी कराई जा सकती है. ये भी पढ़ें: जींद उपचुनाव बना प्रतिष्ठा का सवाल: कांग्रेस-बीजेपी में शुरू हुई जुबानी जंग गुलाम नबी आज़ाद के इन सभी नेताओं से पुराने रिश्ते हैं, जिनका उपयोग वो कांग्रेस को मजबूत करने में कर सकते हैं. लेकिन सवाल ये है कि कितने लोग वापसी के लिए तैयार हैं, दूसरे सबकी अदावत हुड्डा से है तो किसी गैर विवादित व्यक्ति के पीछे ये लोग खड़े हो सकते हैं. इसका हल गुलाम नबी आज़ाद को निकालना पड़ सकता है. राहुल गांधी को देना होगा दखल हरियाणा में गुलाम नबी आज़ाद की मौजूदगी का फायदा मिल सकता है. हालांकि, जिस हिसाब का मर्ज़ है, उसके लिए राहुल गांधी के इलाज की जरूरत है, जो सभी नेताओं को एक प्लेटफॉर्म पर ला सकते हैं. एक साथ ना होने की वजह से लोकल बॉडी चुनाव में कांग्रेस चूक गई है, जहां से पार्टी रफ्तार पकड़ सकती है. हालांकि एकजुटता का नजारा जींद उपचुनाव में दिखाई पड़ रहा है. ऐसा लग रहा है कि प्रदेश के मुखिया अशोक तंवर खुद चुनाव लड़ रहे हैं, जबकि उम्मीदवार रणदीप सुरजेवाला हैं. सभी नेता समय दे रहे हैं. अगर ये नजारा चलता रहा तो आगे कांग्रेस को रोकना बीजेपी के लिए मुश्किल रहेगा.
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