‘मेरा नाम जोकर’ जैसी मंहगी फिल्म की असफलता से बुरी तरह टूट चुके शोमैन राज कपूर साहब से एक पत्रकार ने उनका ‘हाल-ए-दिल’ जानने को बेहद चुभने वाला सवाल पूछ लिया था. ‘सवाल’ से कहीं ज्यादा तेजाबी ‘जवाब’ में राज साहब बोले, ‘वो शौक भी क्या जो इंसान को पागल न बना दे.’ आज पेश की जा रही इस कहानी में, ‘मेरा नाम जोकर’ जैसी ‘फ्लॉप-मुंबईया-फिल्म’ का जिक्र भले न हो. इस कहानी में राज-साहब (स्वर्गीय राज कपूर) सा कोई, हर-दिल-अजीज नामी फिल्मी किरदार भी मौजूद नहीं मिलेगा. इसके बावजूद मगर, राजकपूर साहब के जवाब से. तकरीबन हू-ब-हू एक हैरतंगेज किरदार कहिए या फिर... आज गुमनामी में खोई किसी अजूबे शख्सियत से आज पाठक जरूर रूबरू होंगे. 1920 के दशक के उसी जिद्दी लड़के और आज करीब 90 साल से ज्यादा की उम्र के वयोवृद्ध हो चुके यानि जीते-जागते बुजुर्ग इंसान से. वही इंसान जो, अल्हड़ उम्र में हदों से पार जिद्दी कहिए या फिर सनकी था, जिसने जब और जो ठान लिया, उसे कर-गुजरके ही दम लिया. भले ही उस जमाने में उसकी जेब में महज एक रुपया भर मौजूद था, दोनों पांव बुरी तरह जख्मी हो चुके थे, घर वालों को बताए बिना ही, जिंदगी में वो बालक पहली बार रेलगाड़ी में बैठा, वो भी बे-टिकट, एक अदद इस जिद में कि चाहे जैसे भी हो, उसे किसी तरह वक्त पर दिल्ली पहुंचकर महात्मा गांधी की अंतिम-शव-यात्रा और उसके बाद राजघाट पर होने वाले बापू के अंतिम-संस्कार में शामिल होना था. जमाने भर से बेखबर खुद की मस्ती में मस्त उस बच्चे ने किया भी वही. बाद में यही जिद्दी लड़का केमेस्ट्री में फेल होने के बाद उसी विषय का शिक्षक तो बना ही. उसके बाद दिल्ली पुलिस में दबंग असिस्टेंट पुलिस कमिश्नर यानि A.C.P. (सहायक पुलिस आयुक्त) भी बना. [caption id="attachment_187743" align="alignnone" width="1002"] दिल्ली पुलिस के पूर्व सहायक पुलिस आयुक्त ठाकुर कंछी सिंह, जिन्हें इलाकाई थाने का एसएचओ होने के बाद उन्हीं के मातहत पुलिस वालों ने पहचान न पाने के कारण, एक बार नहीं घुसने दिया था संसद के भीतर[/caption] 30 जनवरी सन् 1948 की वो भयावह काली-रात नई दिल्ली के बिड़ला हाउस (आज का 30 जनवरी मार्ग स्थित गांधी स्मृति) में शाम के वक्त मोहनदास करमचंद गांधी यानी देश के प्यारे बापू महात्मा गांधी की गोली मारकर हत्या कर दी गई. हत्याकांड को अंजाम, सर-ए-शाम (करीब सवा पांच बजे) भरी भीड़ में, बेहद शांत यानी बापू के सभा-प्रार्थना-स्थल पर दिया गया था. दिल दहला देने वाले उस कांड के कुछ समय बाद ही बापू के शव को बिड़ला हाउस के ही कमरा नंबर-3 में कड़े सुरक्षा-पहरे में ब-हिफाजत रख दिया गया. हत्याकांड से हिंदुस्तान ही नहीं समूची दुनिया हिल गई थी. बापू के कत्ल का आपराधिक मामला दर्ज हुआ थाना तुगलक रोड में. धारा- 302 (कत्ल) में दर्ज एफआईआर का नंबर था 68. दिल्ली पुलिस के दबंग अफसर धसौंदा सिंह ने खुद लालटेन की रोशनी में बैठकर सुरमे वाली पेंसिल से महात्मा गांधी हत्याकांड की वो... मनहूस कहिए या फिर ऐतिहासिक एफआईआर लिखी थी. बापू की सनसनीखेज हत्या से दुनिया में कोहराम मचा हुआ था. 30 जनवरी 1948 की वो मनहूस रात हर किसी के सामने सवाल मुंह बाए खड़ी थी. आखिर बापू की हत्या से किसी को क्या मिला? दूसरा सवाल था कि, अब आजाद भारत की आगे की दिशा और दशा न मालूम क्या और किधर होगी? ये भी पढ़ें: दादा ने छिपाया था भगत सिंह को, पोते को 55 साल बाद पता चला जब वो मुजरिम बनकर पहुंचा जेल! बापू हत्याकांड का इकलौता कानूनी-चश्मदीद बापू हत्याकांड से जुड़े तमाम कानूनी दस्तावेजों के मुताबिक शिकायतकर्ता थे, बिल्डिंग लाला सूरज प्रसाद एम ब्लॉक, कनॉट सर्कस (नई दिल्ली जिला) निवासी नत्था लाल मेहता के बेटे नंद लाल मेहता. उन दिनों जमाने भर के पास सूचना-संचार के साधन बेहद सीमित कहिए या फिर न के बराबर थे. इसके बाद भी भारत की आजादी की कोशिशों में निहत्थे ही डटे ‘जीवट’ वाले बापू की नई दिल्ली में हुई हत्या की खबर दुनिया में हर कान तक घंटों के अंदर ही पहुंच गई. हत्यारोपी नाथूराम विनायक गोडसे मय-असलहा गिरफ्तार कर लिया गया. मई 1948 में महात्मा गांधी हत्याकांड का ट्रायल शुरू हुआ ऐतिहासिक लाल किला परिसर में लगी अदालत में. उन दिनों भारत के गृहमंत्री थे बल्लभ भाई पटेल. बड़ों की बात छोड़िए बच्चे भी बेहाल-व्याकुल थे बूढ़ा हो या जवान अथवा बच्चा. नई दिल्ली में बापू की हत्या की खबर से, हर कोई सहमा-ठिठका हुआ सा था. आज 30 जनवरी के ऐतिहासिक दिन के मौके पर इस लेखक ने ‘फ़र्स्टपोस्ट हिंदी’ के पाठकों के लिए खोजा है उन दिनों जमाने की भीड़ में मौजूद अपने-आप में अजूबा साबित हुए, एक घोर-जिद्दी कहिए या फिर अड़ियल बालक को. गांधी जी की हत्या वाली साल जिसकी उम्र, ब-मुश्किल 11 साल रही होगी. वो पांचवीं या छठी कक्षा का विद्यार्थी था. एक जनवरी सन् 1931 को जन्मा वो बच्चा (आज 90 साल से ज्यादा उम्र के बुजुर्ग और दिल्ली पुलिस के रिटायर्ड असिस्टेंट पुलिस कमिश्नर), उन दिनों दिल्ली से करीब 200 किलोमीटर दूर स्थित अलीगढ़ जिले के दौरऊ चांदपुर गांव में रहता था. रात के वक्त गांव की चौपाल पर बैठे इस बच्चे ने जैसे ही गांधी जी को मार डाले जाने की खबर रेडियो पर सुनी, वो भी सहम गया. भले ही कत्ल और कातिल से उसका दूर-दूर तक कोई वास्ता या उसकी जानकारी उसे नहीं थी. हां हत्या का मतलब किसी इंसान का इस दुनिया से खत्म हो जाना होता है, इसकी समझ उस 11 साल के बच्चे को बखूबी थी. घर-गांव के बड़े-बूढ़ों ने सुनी-सुनाई खबरों से ही उस बच्चे को पता चला कि गांधी जी की अंतिम-यात्रा (शव-यात्रा ) दिल्ली में निकाली जाएगी. उसके बाद तो मानो इस बच्चे के दिल-ओ-दिमाग में कोलाहल सा मच गया. रात भर घरवालों से चुपचाप अकेले में लेटा-लेटा सोचता रहा कि बापू का शव कैसे देखने को मिल सकता है? गुपचुप प्लानिंग मतलब घर से गायब हो गया दिल्ली और गांधीजी के बारे में सिर्फ सुना ही था. दोनो में से किसी को देखा नहीं था. 11 साल की उम्र में भले ही दिल्ली देखने की ललक पांव न भी पसारती. गांधी जी के कत्ल और उनकी शव-यात्रा में शामिल होने की चाहत ने मगर इस जिद्दी बालक को झूठा-बेईमान-मक्कार-फरेबी और जो भी समझिए-कहिए, सब कुछ बना डाला. अगले दिन चुपचाप फटे-पुराने कपड़ों में घर से बाहर यानी गांव में घूमने की बात कहकर निकल गया. महज एक रुपया जेब में लेकर. हांलांकि उस जमाने में एक रुपए की भी बड़ी कीमत हुआ करती थी. गांव के गलियारों में पहुंचकर चार-पांच दोस्त तैयार किए. समस्या थी कि आखिर गांव से सैकड़ों मील दूर दिल्ली पहुंचा कैसे जाएगा? न जेब में पैसा. न ठीक-ठाक बदन पर कपड़े जूते. न ही बोलने-चालने का शऊर. ये भी पढ़ें: गोली चली न खून बहा: ‘कांटे से कांटा’ निकालने की ‘कलाकारी’ यूपी पुलिस से सीखिए...! जख्मी नंगे-पांव बेटिकट रेल-यात्रा यानी जिद पूरी हम-उम्र गांव के लड़कों ने हिम्मत बांधी-बंधाई. सो सब बच्चे खेतों में काम कर रहे बड़े-बूढ़ों की आंख से बचते-बचाते गांव की हद से जैसे-तैसे पैदल ही पार हो आए. जिंदगी में पहली बार छोटी सी उम्र में कई किलोमीटर पैदल चलते-चलते पांव थक गए. अलीगढ़ शहर पहुंचते-पहुंचते जूतों ने पांवों को बुरी तरह ज़ख्मी कर डाला. क्योंकि जन्म के बाद 11 साल का होने तक कभी भी इतनी देर जूते पहनने का अनुभव नहीं था. सब लड़कों ने तय किया कि जूते हाथ में लेकर नंगे पांव ही अलीगढ़ की ओर बढ़ा जाए. सो सब के सब हमउम्र ‘शेखचिल्ली’ से नंगे पांव ही अलीगढ़ स्टेशन की दिशा में राहगीरों से पूछते-पाछते फिर चल दिए. गिरते पड़ते अलीगढ़ स्टेशन पहुंचकर दिल्ली वाली पैसेंजर ट्रेन में (उन दिनों रेलगाड़ी भाप के इंजन से चला करती थी. जिसके इंजन का कानफोड़ू शोर और उसकी सीटी इस बच्चे और उसके दोस्तों को बेहद अच्छी लगी) सवार हो गए, सब बच्चे, बिना टिकट लिए, लहू-लुहान पांवों, टूटे-थके-हारे बदन से ही सही. बापू की अंतिम-शव-यात्रा में सब बच्चे शामिल हुए. इतना ही नहीं बेतहाशा भीड़ और छोटा कद होने के कारण बापू की लाश का चेहरा देखने को नहीं मिल पा रहा था. दौरान-ए-अंतिम-यात्रा. तो बापू का चेहरा करीब से देखने की ललक कई किलोमीटर अंतिम-संस्कार स्थल यानी राजघाट तक खींचकर ले गई. आखिरकर जब बापू के दर्शन कर लिए तभी जिद को पूरा समझा. बापू मिल गए मगर रात भूखे पेट सोकर घर से कैसे-कैसे भागकर दिल्ली पुहंचे और बापू के अंतिम-दर्शन तो मिल गए. राजघाट पर बापू के अंतिम संस्कार को देखने के बाद. पांवों में जूतों के काटने से हुए जख्मों का बेइंतिहाई दर्द महसूस हुआ. मगर जेब में मौजूद एक रुपया खर्च करना नहीं चाह रहे थे. भूखे पेट 24 घंटे से ज्यादा का वक्त गुजर चुका था. उस पर पैदल और रेलगाड़ी का रोमांचक मगर बेहद थकाऊ सफर. पांवों के जख्मों का दर्द भूख से हार गया. खैर, जैसे-तैसे रात के वक्त गांव के दूर के एक रिश्तेदार, जोकि दिल्ली की बिड़ला मिल में मजदूरी करते थे, के घर पहुंच गया. घर क्या एक कमरा था. बेहद संकरा. मरते क्या न करते. सो चुपचाप रात को भूखे पेट ही कमरे में जमीन पर लेट गए. ठंड के उन दिनों में भी कमरे के ठंडे फर्श पर बिना रजाई-गद्दे के कब नींद आ गई..पता ही नहीं चला. जिस कमरे में वो रात गुजरी. वो इतना छोटा था कि सबने अपने-अपने पांव दीवार के ऊपर टिका दिए. सिर और बदन रात-भर एक दूसरे से टकराते रहे. [caption id="attachment_187738" align="alignnone" width="1002"] दिल्ली पुलिस में नौकरी के दौरान ठाकुर कंछी सिंह.[/caption] जानिए कौन है कल का वो जिद्दी बालक? मां-पिता का बचपन में ही (1943 के करीब) सिर से साया उठ गया. सौतेले भाई बाबू सिंह ने जैसे-तैसे परवरिश की. साइंस पढ़ने का बेहद शौक था. साइंस में ही फेल होता रहा. इससे भी ज्यादा दिलचस्प कि बाद में एम.एस.सी. (केमिस्ट्री) अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से किया. 1957 में यह शख्स सरस्वती विद्यालय इंटर कॉलेज में बारहवीं कक्षा को केमिस्ट्री पढ़ाने लगा. उस जमाने में एएमयू के वाइस चांसलर थे डॉ. जाकिर हुसैन साहब. एआर किदवई उन दिनों अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में केमिस्ट्री पढ़ाते थे. बाद में किदवई साहब बिहार के राज्यपाल भी बने. ये भी पढ़ें: पुलिस ने जिसे संसद में नहीं घुसने दिया, इंदिरा ने उसी इंस्पेक्टर को दोबारा SHO बना दिया! इससे भी खास यह कि यह इंसान 5 मार्च, 1958 को दिल्ली पुलिस में सहायक उप-निरीक्षक बना. और अपने गांव का पहला दारोगा साबित हुआ. 28 जून सन् 1991 को दिल्ली से पुलिस पुलिस आयुक्त (एसीपी) पद से रिटायर हो गए. दिल्ली के रोशनआरा, सिविल लाइंस, लाहौरी गेट, कनॉट प्लेस, मोती नगर, हौजखास, तिलक नगर सब-डिवीजन एसीपी के पद पर तैनात रहने वाले कल के इस जिद्दी लड़के, दबंग पुलिस अफसर और आज के तजुर्बेकार 91 साल के बड़े-बूढ़े पूर्व पुलिस अफसर का नाम है ठाकुर कंछी सिंह. [caption id="attachment_187742" align="alignnone" width="1002"] भारत की पहली दबंग महिला आईपीएस किरण बेदी के साथ ठाकुर कंछी सिंह बीच में गले में माला डाले हुए.[/caption] ठाकुर कंछी सिंह के दावे के मुताबिक, ‘तिहाड़ जेल से कुख्यात चार्ल्स शोभराज के भागने के तुरंत बाद वो ही अपने लाव-लश्कर के साथ सबसे पहले जेल पर पहुंचे थे. जिन्होंने जेल के तमाम मजबूत दरवाजे कागज के खिलौनों से खुले देखे. इन्हीं ठाकुर कंछी सिंह ने उस दिन, तिहाड़ जेल के हथियारबंद सुरक्षाकर्मियों को बेहाली-बेहोशी की हालत में मुंह से झाग उगलते. जमीन पर यहां-वहां बिलखते-गिरे-पड़े अपनी आंखों से देखा. इन्हीं कंछी सिंह की ईमानदारी और काम की मुरीद हुआ करती थीं, किसी जमाने इनकी डीसीपी रह चुकीं दबंग और देश की पहली महिला आईपीएस किरण बेदी. (लेखक वरिष्ठ खोजी पत्रकार हैं. कहानी ठाकुर कंछी सिंह हुई उनसे विशेष-बातचीत पर आधारित है)
Wednesday, 30 January 2019
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