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Friday 2 June 2017

विश्व युद्ध में शहीद जवानों की शहादत को देखना हो तो यहाँ जरूर आईये

विश्व युद्ध में शहीद जवानों की शहादत को देखना हो तो यहाँ जरूर आईये .
मौत के बाद की समानता और शहादत का सम्मान देखना हो, तो यहां आइये. रांची के कांटाटोली स्थित वार सीमेट्री. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मित्र राष्ट्रों (कॉमनवेल्थ कंट्रीज) की सेना की याद में यह समाधि स्थल बनाया गया है, जहां स्वीपर के साथ लेफ्टिनेंट कर्नल अपनी-अपनी समाधियों में चीरनिद्रा में हैं. यहां पायलट की बगल में गनर और डॉक्टर के साथ ड्राइवर की समाधि भी दिख जायेगी. 
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एक जून 1942 को स्थापित इस वार सीमेट्री में द्वितीय विश्व युद्ध (1939-45) के दौरान मित्र राष्ट्रों में शामिल अॉस्ट्रेलिया, कनाडा, ब्रिटेन, न्यूजीलैंड व गुलाम भारत के थल व वायु सेना की कुल 704 (दो अज्ञात सहित) समाधियां हैं. वहीं तीन समाधियों का संबंध युद्ध से नहीं है. इस तरह यहां कुल 707 समाधियां हैं. भारतीय मूल या भारत के 50 ज्ञात और एक अज्ञात सैनिकों की समाधियां भी यहां बनी हैं, जो जापानी सेना के भीषण आक्रमण का सामना करते हुए शहीद हुए. इनमें झारखंड (तब के बिहार रेजीमेंट) के चार शहीद पौलुस कच्छप, देवान मरांडी व कपिल टोपनो तथा कलीप टोपनो भी शामिल हैं.

विजिटर्स बुक की कुछ पंक्तियां
जब भी हम रांची आयेंगे, यहां जरूर आयेंगे (दिल्ली की फरहत व सूची छह मार्च 2012 को)
बेहतर रखरखाव तथा विनम्र स्टाफ (शुक्ला कॉलोनी, रांची निवासी संजय चौबे 20 अप्रैल 2013 को)
यह वार सीमेट्री बढ़िया मेंटेंड है (आयरलैंड के डी स्वेलर चार दिसंबर 2013 को) 
एक बहुत ही शांतिपूर्ण जगह (ब्रिटेन के माइल ग्रू सात मार्च 2014 को)
बहुत दिनों से सोच रहा था यहां आऊं, अच्छा लगा (ब्रिगेडियर एके दत्ता, 30 अगस्त 2015 को) 
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ये रखते हैं ख्याल
यह युद्ध स्मारक स्मरणीय भी है और दर्शनीय भी. सेकेेंड वर्ल्ड वार में शहीद या गायब हुए किसी अपने की खोज में लोग यहां लगातार आते रहे हैं. वार सिमेट्री की देखरेख रघुनाथ गोप, गोप टोप्पो और भरत कुमार यादव के जिम्मे है. करीब दो दशकों से इन लोगों ने वार सीमेट्री की सुंदरता कायम रखी है. रघुनाथ ने कहा कि यहां काम करते हमें शांति महसूस होती है. बाहर के लोगों के लिए ये स्मारक महज पत्थर हो सकते हैं, पर हमारे लिए नहीं. मृत लोगों की कब्रगाह से हम जीवित लोगों का परिवार चलता है.
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द्वितीय विश्वयुद्ध की यादें आज भी जेहन से नहीं निकलती
द्वितीय विश्वयुद्ध के गवाह बने 103 वर्ष के बीएन गौड़
रांची. द्वितीय विश्वयुद्ध के वो दिन आज भी जेहन से निकलते. वो अंधेरी रात, जाग-जाग कर सेना को आर्म्स पहुंचाना. दूसरी तरफ उत्साह भी था. बात उन दिनों की है, जब दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हुआ, तो बिहार से भी सिविलियन की मांग हुई. हम पांच लोग वहां जाने के लिए काफी उत्साहित थे. देश से हमें भी प्यार था. तब हम 25-26 साल के थे. ट्रांसपोर्ट विभाग में नयी-नयी नौकरी मिली थी. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हम चटगांव (जो अब बांग्लादेश में है) के पहाड़ पर बने मकान में रहे. वहां हथियारों का जखीरा था. वहां से युद्ध के लिए जवानों को हथियार सप्लाई करता रहा.
घर परिवार काे छोड़ दिन रात वहीं गुजारा. ये बातें बीएन गौड़ ने प्रभात खबर से विशेष बातचीत में शेयर की. उन्होंने बताया कि वार प्वाइंट नजदीक होने की वजह से रिस्क भी था, पर कोई हादसा नहीं हुआ. श्री गौड़ द्वितीय विश्वयुद्ध(वर्ष 1939-45) के बारे में बातें कर रहे थे. बातचीत के दौरान कई बार भावुक हुए. उन्होंने कहा कि युद्ध क्या होती है, ये हमलोगों ने जाना और देखा भी. वे द्वितीय विश्वयुद्ध में भारतीय सेना के आर्म्स विंग में थे. हरिहर सिंह रोड में लंबे समय से रह रहे हैं. 24 जुलाई को श्री गौड़ 104 वर्ष के हो जायेंगे. 
आज भी पढ़ने का है शौक 
103 वर्षीय श्री गौड़ को किताब पढ़ना अच्छा लगता है. साथ ही कई काम खुद करते हैं. बैंक जाते हैं. कहानियां भी लिखते हैं.

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